Monday, September 24, 2012

'हिन्‍दी चेतना' का अक्‍टूबर दिसम्‍बर अंक 'लघुकथा विशेषांक' अब उपलब्‍ध है

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आदरणीय मित्रों
श्री श्‍याम त्रिपाठी के संपादन में कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'हिन्‍दी चेतना' का अक्‍टूबर दिसम्‍बर अंक 'लघुकथा विशेषांक' अब उपलब्‍ध है, जिसमें हैं सौ से भी अधिक लघुकथाएं । अतिथि सम्‍पादक द्वय श्री रामेश्‍वर काम्‍बोज 'हिमांशु' तथा श्री सुकेश साहनी द्वारा सम्‍पादित एक संग्रहणीय अंक । आधारशिला, अविस्‍मरणीय, नई ज़मीन, सम्‍पदा, स्‍वागतम् और मेरी पसंद स्‍तंभों के अंतर्गत प्रेमचंद, उपेंद्रनाथ अश्‍क, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, राजेंद्र यादव, रघुबीर सहाय, चेखव, काफ्का, चार्ली चैपलिन, असगर वजाहत, आनंद हर्षुल, चित्रा मुद्गल, उदय प्रकाश सहित सौ से भी अधिक कहानीकारों की लघुकथाएं । लघुकथा को लेकर डॉ श्‍यामसुंदर दीप्ति, डॉ सतीशराज पुष्‍करणा, श्‍याम सुंदर अग्रवाल, सुभाष नीरव, डॉ सतीश दुबे, भगीरथ की विशेष परिचर्चा । लघुकथा की सृजनात्‍मक प्रक्रिया श्री काम्‍बोज का विशेष लेख । लघुकथा पर एक समग्र दस्‍तावेज । साथ में पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक समाचार, चित्र काव्यशाला, विलोम चित्र काव्यशाला और आख़िरी पन्ना । यह लघुकथा विशेषांक अब ऑनलाइन उपलब्‍ध है, पढ़ने के लिये नीचे दिये गये लिंक पर जाएं ।
ऑन लाइन पढ़ें
http://issuu.com/hindichetna/docs/hindi_chetna_oct_dec_2012
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इस विशेषांक पर ‍आप की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा |
सादर सप्रेम,
सुधा ओम ढींगरा
संपादक -हिन्दी चेतना

Tuesday, September 18, 2012

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                               सितम्बर के 'भव्य भास्कर' में मेरी कविताएँ और लघुकथा |

Sunday, September 9, 2012

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 क्षितिज से परे 
: सुधा ओम ढींगरा

        मेरा नाम सुबह वर्मा है | मैं अमरीका की एक ला फ़र्म ब्राउन एण्ड एसोसिऐट्स में वकील हूँ और तलाक़ के मुकद्दमों की पैरवी करती हूँ | अमरीकी लोग मुझे 'सु' कहते हैं, भारतीयों के नामों का अमेरिकेन सही उच्चारण नहीं कर पाते | नाम का अनर्थ करवाने से बेहतर मैंने 'सु' से समझौता कर लिया है | आप कहेंगे, मैं यह सब आप को क्यों बता रही हूँ? चौंकिएगा नहीं, वैवाहिक विज्ञापन जैसी कोई बात नहीं | मैं शादी शुदा हूँ और अभी तक अपने वैवाहिक जीवन से बहुत ख़ुश हूँ | अभी तक इसलिए कह रही हूँ कि अमरीका में कुछ पता नहीं चलता, यह ख़ुशी कब तक है, और कब खो जाए, दुल्हन के मंडप पर आते ही विधवा होने के पलों जैसी | सामाजिक समारोहों में लम्बे-लम्बे चुम्बन लिए जाते हैं और कुछ दिनों बाद तलाक़ की अर्ज़ी दे दी जाती है | वैसे तलाक़ के निवेदन पत्र कई तो मेरे द्वारा भी दिए गए हैं |
      आप सोच रहे होंगे कि मैं अमेरिकेन्ज़ की बात कर रही हूँ | भारतीय तो ऐसा कभी नहीं कर सकते | जी नहीं, मैं भारतीयों की बात कर रही हूँ | मैं भारतीय मूल की वकील हूँ और ला फ़र्म मुझे दक्षिण एशियन मूल के लोगों के ही केस देती है | मुवक्किल और वकील दोनों को एक दूसरे को समझने- समझाने में आसानी होती है | चलो अब बात शुरू हो ही गई है, तो अपने मन की बात कहती हूँ, जिसे कहने के लिए समझ नहीं पा रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ और अपना परिचय देने लग गई | कहना यह चाह रही हूँ कि मेरे पास कई बार ऐसे केस आते हैं, जो अपने आप में अनगिनत कहानियाँ समेटे होते हैं |
        निवेदन कर्त्ता उन्हें ऐसे उड़ेलते हैं जैसे मैं कोई ख़ाली बर्तन हूँ | कुछ कहानियाँ मेरी भावनाओं को उद्वेलित कर जाती हैं | मुझे तो उन्हें सहेजना, समेटना भी नहीं आता | तलाक के बाद और कभी- कभी तलाक के बिना केस फाइल में बंद कर देती हूँ | मेरी फाइल में ऐसा ही एक केस बंद है, जिसे मैं आप के साथ साझा करना चाहती हूँ | बहुत विचलित हो गई थी, उसे सुनते-सुनते...... 

       अपने मुवक्किलों की रिपोर्ट लिखने के अतिरिक्त मैं और कुछ लिख नहीं सकती या यूँ कहूँ कि लिखना नहीं आता | कहानीकार हूँ नहीं कि अलंकृत भाषा में शब्दों का जाल बुन कर, उत्तम शिल्प में, एक अच्छी रचना का सृजन कर आप के सामने पेश कर सकूँ | ऐसी कोई प्रतिभा नहीं है मुझ में और ना ही कोई और विकल्प है, सिवाय इसके कि फ़ाइल में से केस निकालूं और ज्यों का त्यों आप के सामने रख दूँ और आप उसे अकहानी कह लें या कुछ और....

       मेरी ला फ़र्म की नियमावली अनुसार गोपनीयता पहला नियम है | मैं उनका नाम आप को नहीं बता सकती | तो ऐसे करते हैं कि केस को समझने के लिए काल्पनिक नाम रख लेते हैं--पति सुलभ और पत्नी सारंगी और वकील तो मैं हूँ ही | कुछ स्थानों के नाम भी बदल रही हूँ ताकि उनकी गोपनीयता भंग ना हो |
 

         हाँ तो सुलभ और सारंगी की जो फ़ाइल मुझे मिली थी, उसमें नोट लिखा था--शादी के फौरन बाद दोनों चालीस साल पहले अमेरिका आए थे | दोनों के चार बच्चे हैं | दो लड़के और दो लड़कियाँ | चारों विवाहित हैं और आठ ग्रैंड चिल्ड्रन हैं | वर्षों के गृहस्थ जीवन के बाद पत्नी तलाक लेना चाहती है | आगे लिखा था, अगर समझौते से कार्य संपन्न हो जाए तो ठीक है, नहीं तो कोर्ट द्वारा इसे पूर्ण करें | यानि मियुचुअल अंडरस्टैंडिंग से तलाक हो जाए तो ठीक है, नहीं तो कोर्ट में जाओ | 

          हमारी फ़र्म का काम है तलाक करवाना | हर बार, हर केस पर ऐसा ही लिखा होता है | पर यूँ ही कार्य कैसे संपन्न कर दिया जाए, अगर कहीं सम्बन्धों में आग बाकी है, और छोटी -छोटी बातें बढ़ गई हैं, अहम् आवश्कता से अधिक टकरा गए हैं, समय रहते उन्हें सम्भाला जा सकता है तो घर बचाने की मैं पूरी कोशिश करती हूँ | इस केस ने तो मुझे भीतर तक हिला दिया था | चालीस वर्षों की गृहस्थी के बाद भारतीय पत्नी तलाक माँग रही है | अमरीकी लोगों के तो रोज़ ही ऐसे क़िस्से दूसरे वकीलों से सुनती हूँ | उत्सुकता थी उन कारणों को जानने की, जो उसे अपनी भरी- पूरी गृहस्थी को छोड़ कर अलग रहने पर मजबूर कर रहे थे | 
 


        लीजिए मैंने फ़ाइल खोल दी है | बंद हुआ केस बाहर निकाला है | ऑफिस के कांफ्रेंस रूम में गोल मेज़ के एक तरफ सारंगी बैठी हैं (जो नाम हमने दिया है ) और दूसरी तरफ वकील यानि मैं | सुलभ तो आया नहीं | तलाक का निवेदन पत्र सिर्फ सारंगी की तरफ से ही दिया गया है | कमरे में हम दोनों के अतिरिक्त और कोई नहीं | दरवाज़ा बंद कर दिया गया है |
           सारंगी जी, निश्चित आप तलाक लेना चाहतीं हैं ? मैंने प्रश्न पूछा | 

         ---जी कोई दो राय नहीं... बड़े विश्वास से वे बोलीं | 

        कौन से ऐसे कारण थे, जो असहनीय हो गए और आप को यह कदम उठाना पड़ रहा है ? 

         ---कारण असहनीय नहीं होते, इंसान होते हैं और वे कारणों को असहनीय बना देते हैं | 
 फिर भी कुछ तो बताइए, ताकि मैं केस समझ सकूँ | 

        जी, मेरे बारे में कुछ भी सोचने से पहले एक बात घ्यान में राखिए, औरत गृहस्थी को कभी तोड़ना नहीं चाहती, उसने बड़े प्यार और यत्न से उसे खड़ा किया होता है | जब उसके स्वाभिमान और सम्मान के चिथड़े उस गृहस्थी में रोज़ उड़ने लगते हैं तो वह उसे छोड़ने पर मजबूर हो जाती है | बाकी बची औरत को सँभालना चाहती है वह | मैं भी बस इसी लिए आप के सामने हूँ | चालीस वर्षों को छोटा भी करूँ तो सूत का कपड़ा तो है नहीं कि एक ही धुलाई में सिकुड़ जाएगा | लम्बा सफर है कितना छोटा करूँ.... हाँ कुछेक मुख्य -मुख्य बातें बताती हूँ, जिनकी वजह से मुझे यह कदम उठाना पड़ा..
कई क्षण ख़ामोशी पसरी रही, अपनी बात कहने से पहले वह अपने -आप को समेट रही थी | सोच रही थी कि अपनी बात कहाँ से और कैसे शुरू करे | सारंगी ने बोलना शरू किया---
 

        ९ अप्रैल १९७० को अपने पति सुलभ के साथ जॉन. ऍफ़. कैनेडी एयर पोर्ट पर डरी, सहमी उतरी थी | शादी को अभी दस दिन ही हुए थे और मैं सिर्फ सत्रह साल की थी | सुलभ को पीएच. डी करने के लिए अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया था और उनके परिवार वाले उन्हें अकेला पढ़ने के लिए भेजना नहीं चाहते थे | इसलिए जल्दी-जल्दी में शादी कर दी गई थी | उस समय लड़के- लड़की से पूछा नहीं जाता था, परिवार आपस में बात तय करते थे | हम दोनों के परिवारों की आपस में घनिष्टता थी और एक मैट्रिक पास लड़की की पीएच. डी करने वाले लड़के से शादी हो गई | बहुत सुन्दर थी मैं, ताज़ी खिली कली सी किशोरी थी अभी | अपने बेटे के लिए सुसराल वालों ने मुझे माँग कर लिया था, वे मुझे बहुत पसन्द करते थे | 
 एयर पोर्ट पर उतर कर मैंने धीरे से उन्हें पूछा था--ये लोग कौन सी भाषा बोल रहे हैं? वे गुस्सा गए थे-- बेवकूफ अंग्रेज़ी बोल रहे हैं, इतना भी नहीं पता चलता तुम्हें | सारे रास्ते ऊटपटांग प्रश्न कर-कर के परेशान कर दिया | पहाड़ी से लुढ़क तराई में आ गई | सत्रह वर्ष की किशोरी नए देश, नए परिवेश, नए लोगों में जिस पुरुष के साथ सब कुछ छोड़ कर आई थी, वह उसे समझाने की बजाए, उसकी उत्सुकता शांत करने की बजाए डांट रहा था | इंग्लिश तो मैंने भारत में पिता जी और बहुत से लोगों को बोलते सुना था | वह अंग्रेज़ी, इनकी अंग्रेज़ी से बिल्कुल भिन्न थी | यह तो मुझे बाद में पता चला कि ब्रिटिश अंग्रेज़ी और अमेरिकेन अंग्रेज़ी में उच्चारण और लहजे का बहुत अन्तर है | इसीलिए समझ नहीं पाई थी | इमिग्रेशन से निकल कर, सामान लेने तक मैं चुप रही, बस पीछे -पीछे चलती रही | हर चीज़ मुझे अजीब लग रही थी और लोगों की नज़रें मुझे बेचैन कर रही थीं | वे मेरी साड़ी, गहने, चूड़ा, माथे की बिंदी और लोंग को ऐसे देख रहे थे जैसे मैं कोई अजूबा हूँ | मैडम उस समय अमरीका में भारतीयों को हीनता की नज़र से देखा जाता था | चारों ओर की चकाचौंध भरमा रही थी मुझे | हर अनुभव अद्भुत और अचंभित करने वाला था | 

         दूसरा जहाज़ पकड़ कर हम अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे | वे सारे रास्ते चुप थे, कुछ नहीं बोले | मैं महसूस कर रही थी कि मैं इन्हें बोझ लग रही थी | मैं अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व थी | कई बार सोचती कि इनके लिए भी सब कुछ नया है, ये नर्वस हैं, स्वीकार नहीं करना चाहते तभी ऐसा व्यवहार कर रहे हैं | एयर पोर्ट पर सुलभ के प्रोफैसर लेने आए हुए थे | मैं नमस्ते कर मुस्करा दी, सुलभ ने उनसे हाथ मिलाया | सामान ले कर हम कार की तरफ चल दिए | नींद से मेरी आँखें बोझिल हो रही थीं | कार में बैठते ही मैं सो गई | उठी तो एक बहुत बड़ी बिल्डिंग के आगे कार खड़ी थी | उसका बड़ा सा दरवाज़ा खोला तो कोरिडोर में कई बंद दरवाज़े थे | बाईं तरफ के पहले ही दरवाज़े का ताला खोल कर हम अन्दर आए और प्रोफैसर साहब ने कहा कि ये आप का अपार्टमेंट है | उन्होंने कमरा, रसोई, बाथरूम दिखाया और हाथ मिला कर चले गए | जिस कमरे से हम भीतर आए थे | उसमें एक सोफा और एक मेज़ पड़ी थी | दूसरे कमरे में एक बेड था और रसोई में छोटी सी मेज़ और दो कुर्सियाँ थीं | भूख के मारे मेरी जान निकल रही थी | परिवार वालों ने रास्ते के लिए जो परांठे बना कर दिए थे, वे समाप्त हो गए थे | 
 
 सुलभ ने ख़ुशी से पहली बार मुझ से बात की थी --सारंगी ये यूनिवर्सिटी के घर हैं, विद्यार्थियों के लिए ही हैं | याद कर लो यूनिवर्सिटी का नाम है यू. एन. सी चैपल हिल | हम चैपल हिल यूनिवर्सिटी टाऊन में आए हैं और प्रोफैसर क्लार्क जाते -जाते मुझे एक बात और बता गए हैं कि चैपल हिल यूनिवर्सिटी में सिर्फ आठ भारतीय विद्यार्थी हैं | सब के अपार्टमेंट आमने- सामने हैं | मैंने राहत महसूस की थी, कम से कम बातचीत की तो आसानी होगी | 

          सुलभ ने मुस्करा कर कहा था--भूख लगी है तुम्हें, प्रोफैसर क्लार्क बता गए हैं, अभी कोई खाना ले कर आएगा | उन दिनों आज की तरह एक यूनिवर्सिटी में दो सौ, तीन सौ विद्यार्थी भारत से नहीं आते थे हर वर्ष |
 

      तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई और सामने वाले अपार्टमेंट में रहने वाला दक्षिण भारतीय दम्पत्ति खाना ले कर आया था | इडली, सांम्बर और चावल | इडली, सांम्बर का नाम मैंने पहली बार सुना था | जिस छोटी सी जगह से मैं आई थी, वहाँ अपने आस -पास के अतिरिक्त और किसी भी बात की जानकारी मुझे नहीं थी | भूख इतनी लगी थी कि सब खा गई | उन्होंने अपना परिचय दिया... नाम थे के.नाथन और विद्या | विद्या से उसी पल मेरी दोस्ती हो गई | बाद में उस ने मुझे अंग्रेज़ी सिखाई | के. नाथन बहुत विनम्र और बेहद काबिल इंसान लगे थे मुझे | पर सुलभ को पसन्द नहीं आए | दोनों एक ही प्रोफैसर के पास पीएच. डी करने वाले थे | वे हमसे कुछ दिन पहले आ गए थे | 

          मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती थी और विद्या को हिन्दी | पर दोनों एक दूसरे के भाव पकड़ कर बात कर रहे थे | उनके जाने के बाद इन्होंने कहा था, इस तरह बोलते हुए बेवकूफ लग रही थी, अंग्रेज़ी सीखो | पर कहाँ से, कौन सिखाएगा, इस के बारे में कुछ नहीं कहा | और के.नाथन के बारे में कहा था--साला अपने आप को बहुत अकलमंद समझता है, देखना मैं इसे कैसे पछाड़ता हूँ | झुरझरी सी फैली थी बदन में.... मेरे पति ऐसा क्यों कह रहे हैं ?
 

          यह सारी भूमिका इस लिए बांधीं है कि इस तरह मेरे जीवन की शुरुआत हुई | 'बेवकूफ' शब्द तब से मेरे साथ चिपक गया दीवार पर लगे पोस्टर की तरह | चालीस सालों बाद भी मैं 'बेवकूफ' हूँ | सुलभ उस रात मुस्कराए थे या जब उन्हें मेरी ज़रुरत होती है, तब मुस्करा कर बात करते हैं | उम्र भर वे मेरे साथ रूखे -सूखे बने रहे | लोगों के साथ भी उनका व्यवहार कई बार बहुत अनुचित होता है, अशिष्टता की सीमाएँ पार कर जाता है | विश्वविद्यालय में रिसर्च प्रोफैसर तो बन गए, पर विद्यार्थी और प्राधिकारी उन्हें पसन्द नहीं करते | काबिल और सफल लोगों से दुनिया भरी पड़ी है, पर उनको अपनी बौद्धिकता का बहुत दंभ है, जो अब 'सुपीरियर काम्प्लेक्स' में बदल चुका है | उनकी प्रज्ञाशीलता पर मुझे भी गर्व है, पर दूसरे का अस्तित्व ही नहीं, इस मानसिकता के साथ नहीं जी सकती | तलाक के अन्य कारणों में एक यह भी है कि अब मैं एक क्षण और बेवकूफ बन कर नहीं रह सकती | बच्चों के सामने इतने वर्ष अपमानित हुई, पर ग्रैंड चिल्ड्रन के सामने बेइज्ज़त नहीं हूँगी | 

          हाँ तो मैं बता रही थी, दूसरे दिन ये लैब चले गए | मैं और विद्या दोनों बन सँवर कर घर से आस -पास के स्टोर देखने निकल गईं | पैदल चल कर जितना हम जा सकतीं थीं, गईं | उम्र और जिज्ञासु मन गवेषणा करना चाहता था | विद्या ने बातचीत के लिए अंग्रेज़ी के वाक्य याद करवाए, उनके अर्थ समझाए | 

           शाम को उत्सुकता से इन्हें सब बताना चाहती थी पर ये मेरे प्रति उदासीन बने रहे | नई -नई शादी हुई थी और पति को अपने प्रति नीरस पाकर चिपट गई थी उन के साथ | कमरे का एकान्त और उम्र के उफ़ान को रोक नहीं पाई थी | रो पड़ी थी--बोलिए, मैं ऐसा क्या करूँ कि आप ख़ुश हो जाएँ. बोलिए.... मैं रोती -रोती उनसे लिपटती गई थी और इन्होंने मेरा समर्पण स्वीकार किया | कठपुतली की तरह समर्पित रही हूँ... उन्हें ही ख़ुश करने में लगी रही ...वे ख़ुश नहीं हुए | बच्चों के बाद तो मेरा समर्पण भी स्वीकार नहीं किया | थक गई हूँ मैं | मुझे अब किसी को ख़ुश नहीं करना, मुझे किस से ख़ुशी मिलती है, वह सब मैं करना चाहती हूँ |
           इनकी पीएच. डी पाँच वर्षों में समाप्त हुई | के. नाथन जो इनकी नज़रों में कुछ नहीं था, चार सालों में अपना काम पूरा करके चला गया | तीन साल इन्होंने पोस्ट डाक्टरेट की | उस अपार्टमेंट में आठ वर्ष बिताए हमने | उस समय भारतीयों का जीवन अमेरिका में बहुत कठिन था | उन चुनौतियों को स्वीकार करने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था | तब के अमेरिका और आज के अमेरिका की जीवन शैली में बहुत अन्तर है | छोटी -मोटी खाने- पीने की सामग्री से ले कर आवाजाई की सुगमता वर्तमान जैसी नहीं थी | ये सारा-सारा दिन और कई बार आधी रात तक भी लैब में रहते थे | मैं इस देश में बिल्कुल अकेली हो गई थी | विद्या भी चली गई थी | उसके पति पीएच. डी पूरी करने के बाद पोस्ट डाक्टरेट ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी करने चले गए | 
 विद्या के साथ ही एक दिन स्टोर में घूमते हुए हमनें पहली बार किसी भारतीय महिला को देखा था | वे हमसे बड़ी थीं | उन्हें देख कर हम बहुत उत्तेजित हो गईं थीं | वे पहले तो मुस्करा दीं, फिर पास आकर बड़े मधुर और आत्मीय भाव से हमें पूछा--लड़कियो, इस शहर में अभी आई हो? शादी को भी कुछ ही दिन हुए लगते हैं | घर की बहुत याद आती है |
        जी --हमारा संक्षिप्त सा उत्तर था |

         चलो मेरा घर पास ही है, चाय- पानी पी लो और कुछ मुश्किल लग रहा हो, तो उसका हल बता दूंगीं | कुछ साल पहले ही मैं यहाँ आई हूँ और मुझे बहुत परेशानियाँ आईं थीं | जब आप जाना चाहेंगी तो घर छोड़ दूंगीं|
         कार की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा | हमें तो ऐसे इंसान की ज़रुरत थी, जो हमें रास्ता दिखा सके | दोनों इस देश में भटक रही थीं, विशेषतः मैं | उनके चेहरे की सौम्यता और मृदुल स्वर ने स्नेह और आत्मीयता की बौछार कर दी | जिससे हम दोनों वंचित थीं | भारत बहुत याद आता था और साथ ही याद आता था परिवार | आँखें झलक गईं और हम एकदम कार में जा बैठी थीं | वे बहुत बढ़िया हिन्दी बोल रही थीं, कार में बैठते ही मैंने उनसे कहा|
        दीदी, मेरा नाम सारंगी है और इसका नाम विद्या | आप का नाम ?....
        उनके चेहरे की मुस्कान और फैल गई...बोलीं-- मेरा नाम सुनन्दा भार्गव है और मैं पाँच वर्ष पहले ही लखनऊ से यहाँ आई हूँ | मेरे पति डाक्टर हैं | मैं समझ गई हूँ कि तुम दोनों के पति यहाँ पीएच. डी करने आए हैं | हम भी मुस्करा दी थीं |
         आज मैं तुम दोनों को अमेरिकेन ग्रोसरी से भारतीय खाना बनाना सिखा दूँगी, भारतीय ग्रोसरी यहाँ नहीं मिलती | दालें न्यूयार्क से आती हैं, बहुत मंहगीं होती हैं | विद्यार्थिओं के लिए खरीद पाना मुश्किल होता है | घर से आते समय कुछ दालें ले आना | अभी मैं कुछ दालें दे दूँगी | मेरे पास काफ़ी स्टाक है |
       दीदी, हम मसाले और दालें भारत से ले कर आईं हैं |
       तब तो अच्छी बात है...
        पाँच मिनट बाद उनका घर आ गया | हम दोनों उनका घर देख कर हैरान रह गई थीं, बहुत बड़ा और साफ़ -सुथरा था | उन्होंने चाय के साथ समोसे और गुलाबजामुन दी थीं | हमारी आँखों की चमक देख कर वे बोली थीं--सब घर बनाना पड़ता है, मैं सिखा दूँगी | तुम दोनों तो अभी बहुत यंग हो, कहाँ बनाना आता होगा सब |
         सुनन्दा दी ने मुझे गृह-कार्यों में दक्ष कर दिया | उन्हीं की प्रेरणा से मैंने घर की बागडोर स्वयं सम्भाल ली थी | मैंने इनकी पढ़ाई पूरी करवाई | यह इसलिए कह रही हूँ कि अगर इनका ध्यान घर- गृहस्थी के कामों में लगवाती तो यह अपने काम पर एकाग्रचित ना हो पाते | कुछ नहीं कहा इन्हें और सब काम अकेली करती रही, जो काम नहीं आते थे उन्हें सीखा | भारतीयों के साथ- साथ स्थानीय लोगों से दोस्ती की और अपनी टूटी- फूटी भाषा से बातचीत शुरू की | कई बार अपमानित हुई | परोक्ष रंगभेद था | भला हो विद्या का जो मुझे थोड़ी -बहुत इंग्लिश सिखा गई | 
 

            वकील साहिबा इन्होंने कभी इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि मैं कैसे सब कुछ मैनेज करती हूँ | जब -जब शिकायत की यह सुनने को मिला-- बेवकूफ तुम्हें क्या पता मुझे बाहर कितना जूझना पड़ता है | यह अपना देश नहीं है | यह देश मेरा भी नहीं था | अगर नई जगह पर इनका संघर्ष था, तो मेरा भी उतना ही था | हाँ मोर्चे अलग थे | मैंने घर परिवार सम्भाला और इन्होंने बाहर | फिर एक बुद्धिमान कहलाए और दूसरा बेवकूफ... क्यों? बस मेरा यही मुद्दा है जो ये समझना नहीं चाहते, स्वीकार करने में इनके अहम् को चोट लगती है |
          ये तो इस बात को स्वीकार भी नहीं करना चाहते कि घर की चार-दीवारी में रहता हुआ कोई इंसान 'ग्रो' कर सकता है | बच्चों की परवरिश में मैंने कोई कमी नहीं रखी | उसी छोटे से अपार्टमेंट में चार बच्चे हुए | बच्चे के जन्म के समय ये मुझे भारत भेज देते थे और मैं छह महीने का बच्चा ले कर भारत से आती थी | हर बार इन्होंने ऐसा किया | मुझे कुछ महीनों का सुख मिल जाता था | मैंने वहाँ सिलाई -कढ़ाई, पेंटिंग, क्राफ्ट कई कुछ सीखा | 
 

          जब बच्चे पल रहे थे, ये आस -पास भी नहीं थे | एक रात भी बच्चों के लिए नहीं जागे | इन्हें सुबह लैब में काम करना होता था | मेरे पास कोई मदद नहीं होती थी | घर और बाहर के सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे | चार बच्चों के साथ सारी -सारी रात जाग कर, मैं सुबह सब काम करती थी, बच्चों को स्कूल भेजती थी | एक इटैलियन औरत से दोस्ती गाँठ ली थी | बच्चों के स्कूल जाने के बाद उनके कोर्स उससे पढ़ लेती थी और स्कूल से आने के बाद बच्चों को होम वर्क करवाती थी | बच्चों के साथ -साथ मैं भी पढ़ गई | फिर भी इनकी नज़रों में बेवकूफ हूँ, क्योंकि ये विश्वविद्यालय के प्रोफैसर बन गए और मैं एक घरेलू औरत ही रही |
          यूनीवर्सिटी के प्रोफैसर बनकर तो हर समय महसूस करवाया कि जो मैंने किया, वह हर माँ करती है, यह तो पत्नी और माँ का फ़र्ज़ होता है | अगर मैंने एहसास दिलवा दिया कि आप ने परिवार को जो आर्थिक सुदृढ़ता और सुरक्षा प्रदान की है | यह एहसान नहीं किसी पर...यह भी पति और पिता के फर्जों में आता है तो भड़क पड़ते हैं कि अमेरिका में रहने के बाद मैं अपने- आप को बहुत अक्ल मंद समझने लगी हूँ | बुद्धिमता की ग़लतफहमी हो गई है मुझे |
             सच कहूँ तो सुनन्दा दी के साथ से ही इतने सालों की गृहस्थी निभ गई | वे सुलभ के स्वभाव से परिचित हो गई थीं | मुझे हिम्मत बंधाती रहती थीं | दस साल पहले उन्होंने भी कह दिया था कि बच्चे सब सेटल हो गए हैं, अब इस पुरुष के लिए तुझे और रुकने के लिए नहीं कहूँगी | पर मैं अब तक कोशिश करती रही |
 

             कोशिश तो मैंने हर पल, हर क्षण की | इनको पार्टियाँ देनीं और पार्टियों में जाना बहुत पसन्द है | पार्टियों में जब लोग इनकी पोज़िशन और सामाजिक स्तर की बात करते हैं तो इनके अहम् को बहुत तुष्टि मिलती है | मैंने बहुत पार्टियाँ दीं और ना चाहते हुए भी इनके साथ हर पार्टी में गई | पाँच साल पहले मैंने पार्टियाँ देना और उनमें जाना बंद कर दिया | पार्टी के बाद रात भर मैं रोती थी | वापस घर आते हुए, कार में 'बेवकूफ' के साथ पता नहीं क्या -क्या बना दी जाती थी | मिसिज़ मेहरा ने कपड़े सुन्दर पहने हुए थे और मिसिज़ खोसला अंग्रेज़ी अच्छी बोल रही थीं...तुम्हें किसी भी बात की तमीज़ नहीं... उम्र भर यही सुनती रही हूँ .. 
 

            उस दिन नहीं सुन सकी थी ..और कह दिया था--अगर मैं इतनी उजड्ड और गंवार हूँ, तो क्यों पार्टियों में लेकर जाते हैं ..अकेले जाया करें, मैं कब मना करती हूँ.. मुझे घर में रहने दें |
         तुम्हारी खूबसूरती के लिए तुम्हें साथ ले कर नहीं जाता..समाज में मेरा स्तर है..मैं यह नहीं सुनना चाहता कि सुलभ का अपनी पत्नी पर कोई रौब नहीं | वह असफल इंसान है, अपनी पत्नी सम्भाल नहीं सकता | यह सुन कर मैंने पार्टियों में जाना बंद कर दिया, अगर यही जगह है मेरी, तो संभालें अपना स्तर | 

          पार्टी देना कभी बंद ना करती, अगर उस दिन वह हादसा ना हुआ होता--नए साल की पार्टी की मैंने बहुत धूम- धाम से तैयारी की थी | नया थीम रखा था | सबने गोल्ड और ब्लैक कपड़े पहन कर आना था | मैंने छोटी-छोटी हट्स बनाई थीं..चाट- पापड़ी, ढोकला, आलू टिक्की छोले, समोसे , कचौरी, भेलपूरी, पाव भाजी, पनीर पकौड़े, पानी पूरी..चिकन टिक्का मसाला , तंदूरी चिकन..कढ़ी- चावल, दाल मक्खनी परांठे, चिकन बिरयानी, वेजी बिरयानी, पास्ता, लज़ानिया...और फिर मिठाई की दूकान अलग थी..सुलभ ने बार सैट कर दी थी..घर में मधुर संगीत की स्वर -लहरियां गूँज रही थीं..घर की साज -सज्जा मेरी कलात्मक रूचि को दर्शा रही थी..

          सब कुछ देख कर मैं तैयार हो कर हॉल में पहुँची ही थी कि सुलभ मुझे बाजू से पकड़ कर कमरे में ले गए--कपड़े बदलो..अपनी उम्र के अनुसार रहना सीखो |
          मैंने आईने में स्वयं को निहारा ...देखती ही रह गई..उम्र बढ़ती नज़र नहीं आ रही तो मैं क्या करूँ | ब्लैक -गोल्ड ड्रेस और उसी के साथ मैचिंग ज्वेलरी से मैं और भी युवा दिख रही थी | मैं स्वयं भी हैरान रह गई कि मैं आठ पोते-पोतियों, नाते -नातियों की दादी- नानी हूँ | 

          तभी दरवाज़े की घंटी बजी और लोग पार्टी के लिए आ गये थे | मैंने कपड़े नहीं बदले और बाहर आ गई | कपड़ों का थीम मैंने ही रखा था, मुझे उस थीम का पालन करना था | इनकी आँखें मुझे देखते ही गुस्से में आ गईं | मैं उनसे बेपरवाह मेहमान नवाज़ी में लग गई |
          मिस्टर मेहरा पर वाईन का नशा जब हावी हो जाता है तो वे बहुत ऊँचा बोलने लगते हैं...वे ज़ोर -ज़ोर से बोलने लगे -- भाभी जी, आज तो आप क़यामत ढाह रही हैं | सुलभ यार अपना ख़याल रखो, बूढ़े लगने लगे हो...भाभी जी तो अभी भी तीस से ऊपर नहीं लगती | मैं तो हर रोज़ अपनी पत्नी से कहता हूँ, भाई सारंगी भाभी से कुछ टिप्स लो..वे क्या खाती पीती हैं..जिस शालीनता से वे रहती हैं, उनके कपड़े पहनने का अंदाज़, साड़ी पहनने का सलीका सीखो | हर समय मुस्कराती रहती हैं..चेहरे से नूर टपकता है..
         मिस्टर खोसला ने बात आगे बढ़ा दी-- यार बड़े लकी हो..भाभी बढ़िया कुक, उत्तम होस्ट, सुघड़ गृहणी...
          सुलभ ने बीच में टोक दिया -- मेरी पत्नी की ही प्रशंसा करते रहोगे या पार्टी का भी एन्जॉय करोगे...मेरी कमाई पर मैडम ऐश कर रही हैं | मेहनत मैं करता हूँ और क्रेडिट आप सारंगी को दे रहे हैं |
          मेहरा बोले -सुलभ मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ ..मेहनत कौन नहीं करता, मैं भी करता हूँ, यह भी करता है ...खोसला की ओर इशारा कर वे बोले .... मेरी मैडम भी ऐश करती हैं, पर कैसी मोटी थुलथुल हो रही हैं..हमारा घर तुम्हारे घर से बड़ा है...बेतरतीब रहता है...मेरी मैडम की तो कोई रूचि नहीं..तुम्हारा घर, तुम्हारी पार्टियाँ याद रहती हैं..हर बार नया विषय, नई साज- सज्जा, सलीके की होस्ट..जो जितनी प्रशंसा का हक़दार है उसे मिलनी चाहिए, तुम्हारी समस्या है कि तुम भाभी की तारीफ़ सुन नहीं सकते...
           मैंने देखा, सुलभ के चेहरे के भाव बदल गए ...उस दिन जान पाई कि पार्टी के बाद मेरे अस्तित्व की धज्जियाँ क्यों उड़ाई जाती थीं...?

              रात के बारह बजे टाईमज़ स्कुयेअर से जब बाल गिरा, सब ने एक दूसरे को बधाई दी, सुलभ ने मेरी तरफ देखा भी नहीं | पार्टी के बाद लोग जाने लगे ...

           अन्तिम मेहमान के जाते ही मेरे पति ने कस कर मुझे थप्पड़ मारा-- मेहरा और तुम में क्या चल रहा है...साला हर पार्टी में तुम्हारी तारीफ़ों के पुल बंधता रहता है | मैंने तुम्हें कपड़े बदलने को कहा था....ऐसा ना करके तुमने मुझे नीचा दिखाया है...नीचा दिखा कर तुम ख़ुश रह लोगी..कभी नहीं भूलना यह घर मेरा है...|
           मैं समझ ही नहीं पाई, यह सब क्या हुआ..हाथ ९११ घुमाने के लिए टेलीफ़ोन की तरफ बढ़े, पुलिस आ जाती और हमेशा के लिए किस्सा समाप्त हो जाता...पर संस्कारों ने रोक दिया, सुलभ का घटियापन दुनिया के सामने आ जाता..मेरी आत्मा को गवारा नहीं था | सुलभ सारी रात नहीं सोए, आलोचना के साथ शिकायतें ही शिकायतें करते रहे...पार्टी का सारा मज़ा किरकिरा हो गया था..नए साल की शुरुआत से ही मैंने फैसला ले लिया था..पार्टियाँ बंद..सुलभ मुझे किसी भी पार्टी के लिए मजबूर नहीं कर पाए थे ..उन्हें मेरे विरोद्ध का आभास हो गया था..
 

          मेरे पति को मुझ से बड़ी शिकायत है कि वे मेरे साथ कभी भी वैसा रिलेट नहीं कर पाते, जैसे वे अपने सहकर्मियों के साथ कर पाते हैं |
          सच कहूँ तो बिल्कुल सही कहते हैं, सहकर्मियों के साथ वे दिन में चौदह घन्टे रहते रहे हैं और मेरे साथ बस एक दो घन्टे और उसमें भी बच्चों की बातें होती थी या घर खर्च की | और विषयों पर कैसे रिलेट कर पाते, उसके लिए समय चाहिए, वह उनके पास था नहीं | विशेषतः मेरे लिए |
          आप जानना चाहेंगी कि मैं क्या कह रही हूँ...

          मैंने 'हाँ' में सिर हिला दिया | 

          पीएच. डी में उनके पास समय नहीं था, मैंने स्वीकार कर लिया था, लैब में टाईमर लगा कर आते थे, रिएक्शन चल रहा होता था और खाना खा कर वे वापिस लैब चले जाते थे | उस समय मेरे लिए समय नहीं था | फिर पोस्ट डाक्टरेट में भी यही हाल रहा और तब मेरे साथ -साथ बच्चों के लिए भी टाईम नहीं था | उसके बाद तो बस उनकी आदत ही हो गई, यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर बन कर तो वे बहुत महत्वाकांक्षी हो गए..साईंस की दुनिया में बहुत आगे जाना चाहते थे | आगे जाने की धुन में इतना आगे बढ़ गए कि हम सब पीछे छूट गए और जब -जब मैंने इस तरफ ध्यान दिलाना चाहा, उन्होंने इसे झगड़ा समझा और बच्चों के सामने कह दिया कि- तुम्हारी माँ बेवकूफ है, मैं कौन हूँ , क्या हूँ, कुछ समझती नहीं, और मेरे पास इन फालतू बातों के लिए समय नहीं है | बच्चे छोटे थे, समझ नहीं पाए, बड़े हो कर उन्हें समझ में आया कि माँ क्या कहती थी और बाप उसका क्या उत्तर देता था | ऐसे हालत में माँ ने उनके लिए क्या किया | 
 

         कभी पेरेंट्स टीचर मीटिंग में नहीं गए | मुझे अंग्रेज़ी अच्छी तरह से नहीं आती थी, फिर भी जाती थी, मेरे बच्चों के भविष्य की बात थी | बच्चों के लिए मैंने अंग्रेज़ी दूसरी भाषा के रूप में विशेष क्लास में जा कर सीखी | बच्चों के किसी खेल या डांस शो में नहीं पहुँचते थे, अगर बच्चे शिकायत करते, तो उन्हें डांट पड़ती | उनके पिता बहुत बिजी हैं, एहसास कराया जाता | बच्चे बहुत दुखी होते थे | मेरे पति काम और परिवार में तालमेल नहीं कर पाए | महीनों उन्होंने मेरी ओर देखा नहीं | करवट बदल कर सो जाते थे और मैं रात -रात भर रोती थी | प्यासी देह को समेट कर सुबकती | सावन में स्पर्श की बूँद ना गिरती | सर्दी में बदन छुअन वहीन तपिश की लौ में झुलसता रहता और गर्मी में उन की एक नज़र के लिए रात भर तड़पती रहती | ऋतुएं आतीं, चली जातीं और वे पौरुष के झूठे दंभ में अकड़े खोखले वृक्ष से सूखे- रूखे बने रहते|
         आईने के सामने खड़े हो कर स्वयं को निहारती, मुझ में क्या कमी है, जो मेरे पति मेरी ओर नहीं देखते | हीन भावना की शिकार हो गई थी | २५ वर्ष की उम्र तक चार बच्चों की माँ बन गई थी | कई बार उनके पास रोई थी, उन्होंने दोषिता महसूस करवाया, चार बच्चों के बाद औरत में अगर इच्छा उत्पन्न होती है...तो बेवकूफों की सोच और ख़ाली दिमाग की देन है | मुझे बहुत बाद में पता चला, जब बेटा डाक्टर बना कि समस्या उनकी अपनी थी, मेरी नहीं, वे उसे मानना नहीं चाहते थे | स्वीकारते तो पुरुष अहम् और झूठे दंभ पर चोट आती | 
 

         अपने दोष को छुपाने के लिए वे मुझे बेवकूफ कहते रहे | चार बच्चे उनकी मजबूरी की देन थी, या यूँ कहूँ कि पता नहीं कैसे हो गए? भरी जवानी से अब तक मैं मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना सहती रही हूँ | भीतर की औरत के उमड़ते संवेगों को दबा कर संस्कारों में बंधी चलती रही | वे तो अपने आप को संतुष्ट कर लेते थे | तड़पती तो मैं रहती थी | किसी और पुरुष की तरफ देख भी नहीं पाई | गुनाह लगता था | प्रकृति जब मजबूर करती तो ठन्डे पानी के शावर में खड़ी हो कर देह को शांत करती | जब तक माँ -बाप रहे, अलग होने की सोची नहीं, उन्हें बुढ़ापे में सदमा नहीं देना चाहती थी | उनके बाद अलग होने का बहुत बार सोचा था | बच्चे भी साथ देने को तैयार थे, वे मेरे दर्द को समझते थे...बस मर्यादा में बंधी रही | उसी को मेरे पति ने मेरी कमज़ोरी समझा |
         आप को यह जान कर दुःख होगा कि मेरी बेटियों ने स्थानीय पति ढूंढे हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें अमरीकी कल्चर से प्यार है, अमरीकी लड़कों के साथ गृहस्थी निभाते हुए भी वे भारतीय हैं | वे अपने बाप के व्यवहार, स्वभाव और मानसिकता से इतनी आहत हुईं कि भारतीय मर्दों और उनके दोहरे मापदंडों से नफरत करने लगीं | 

        आप के दिमाग में यह प्रश्न कौंध रहा होगा, कि जब जीवन के इतने वर्ष एक पुरुष को दे दिए तो अन्तिम प्रहर में अलगाव का निर्णय क्यों? अब और नहीं सहा जाता | वे स्वयं ही मुझे इस निर्णय तक ले आए हैं | 
 

     उस दिन भी, मैंने उनको, उनके फर्जों की ओर इंगित किया, वे चिल्ला पड़े ---सारंगी तुम बेवकूफ हो , तुम्हें पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? तुम्हें मेरी कद्र नहीं | तुम्हें मेरी पूजा करनी चाहिए, मैंने तुम जैसी एक अनपढ़, गंवार का जीवन संवार दिया | पश्चिमीं सभ्यता और अमरीकी वातावरण ने तेरा दिमाग ख़राब कर दिया है | मेरे बिना तेरा अस्तित्व है ही क्या ? तेरी नींव खोखली है | आज अगर मैं तुझे तलाक दे दूँ, तो कोई तेरी तरफ देखेगा भी नहीं |
     यह सब सुन कर भीतर की औरत ने विरोध कर दिया | स्वाभिमान को चोट लगी | आखिर बोल ही पड़ी -- वर्षों से जो चाह रही हूँ, मैं वह कर नहीं पाई, आप ही कर दें तो इस नाचीज़ पर एक और एहसान हो जाएगा | उम्र भर आभारी रहूँगी |
           सुन कर वे और भी भड़क गए--तुमसे रिलेट करना मुश्किल है | पति हूँ तुम्हारा | तुम मुझे कैसे तलाक दे सकती हो | समाज में क्या मुँह दिखाओगी | बच्चे क्या सोचेंगे |
          आप तलाक दे सकते हैं तो मैं क्यों नहीं | समाज की चिंता ना करें, वह मैं सम्भाल लूँगी | बस आप तलाक दे दीजिए | जीवन में पहली बार आवाज़ ऊँची की थी.... उसे वे अनसुना कर बच्चों को फ़ोन मिलाने लगे थे | बच्चों ने क्या कहा मैं नहीं जानती पर वे चुप-चाप अपने कमरे में चले गए थे | 
 

          वे अभी भी चालीस साल पहले की मानसिकता में जी रहे हैं.. पूरे क़स्बे में वे अकेले पढ़े- लिखे थे | एक तरह की आत्ममुग्धता के झूठे जाल में फँसे हुए हैं | आज तक उससे निकल नहीं पाए, निकलने की कोशिश भी नहीं करते | कुंठित व्यक्तित्व है उनका | समय के साथ बदलना नहीं चाहते.... रिटायरमेंट के बाद हालत ज़्यादा बिगड़ गए हैं...वर्षों से ये सुबह काम पर जाते थे और मैं अपने तरीके से सब काम करने की आदी हो चुकी हूँ..अब ये घर पर रहते हैं..और सबेरे से शाम तक मेरी हर छोटी बड़ी बात में दखल देते हैं, हर कदम पर रोक- टोक करते हैं | खाने में मीन- मेख निकालते हैं .. किस का फ़ोन आया, क्यों आया, इतनी देर बात क्यों की..मिनट -मिनट का हिसाब चाहिए इन्हें ..कोई शौक भी नहीं है, जिसमें इनका ध्यान कुछ देर के लिए दूसरी तरफ लगे ..ये मुझे पत्नी, दोस्त, साथी बना कर नहीं चलना चाहते, इन्हें एक नौकरानी चाहिए, जो इनके इशारों पर नाचती रहे और इन्हें बिज़ी रखे | इन्होंने मेरा साँस लेना दूभर कर दिया है...... 
 

          ...मेरा अब अपना संसार बसा हुआ है | मैं यहाँ के संघर्ष और चुनौतियों से बेहद परिपक्व हो गई हूँ | समय के साथ परिवर्तित हुई हूँ | बच्चों की शादियों के बाद मैंने अपने जीवन के अर्थ ढूँढने शुरू किए थे | वे राहें ढूँढी, जिन पर चल कर मैं किसी की मदद कर सकूँ | सुबह जिम जाती हूँ | उसके बाद हस्पताल में नर्सों की सहायता करने चली जाती हूँ | दोपहर में थोड़ी देर आराम करके पेंटिंग करती हूँ | इस देश में आकर मैंने अपने इस शौक को बढ़ाया है | बचपन में पेंटर बनना चाहती थी | मेरी पेंटिंग की प्रदर्शनियां हर शहर में लगती हैं | शाम को वृद्ध आश्रम में वृद्धों के साथ समय बिताने जाती हूँ | सप्ताहांत मन्दिर के कार्यों में व्यस्त रहती हूँ | बच्चों को जब- जब मेरी ज़रुरत पड़ती है, उन्हें समय देती हूँ | ग्रैंड चिल्ड्रन को मिलने जाती हूँ | मैं अकेली नहीं हूँ, मेरा बहुत बड़ा संसार है | सुलभ के रिटायर होने के एक महीने के भीतर मैंने महसूस किया कि मेरी सोच और जीवन मीमांसा में और उनके जीवन दर्शन में बहुत अन्तर है...वे जिस मानसिकता में अभी भी जी रहे हैं, मेरा उनके साथ निभा पाना बहुत कठिन है | लैब की दुनिया में रहने वाला साईंटिस्ट अपनी चारदीवारों से बाहर कुछ देख, सोच और समझ नहीं पाया | अपने बड़प्पन के दर्प में ही डूबा रहा और दसवीं पास लड़की जिसने रोज़ इस देश में संघर्ष किया और चार बच्चों को पढ़ाया | सोच और समझ दोनों में बहुत आगे निकल गई है..मेरे दो बेटे डाक्टर हैं, एक बेटी वकील और दूसरी प्रोफैसर है | मेरी प्राथमिकताएँ बदल गई हैं..भावनात्मक स्तर पर मैं उनसे बहुत दूर निकल चुकी हूँ.....क्षितिज से परे ......मैं सचमुच सुलभ से 'रिलेट' नहीं कर सकती |
       सारंगी ने अपनी दास्ताँ को यहाँ विराम दिया |
       केस फाईल में बंद हो गया, उसका क्या अंत हुआ... ? गोपनीयता के अंतर्गत बता नहीं सकती |


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