Friday, December 3, 2010

सच कहूँ

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सच कहूँ,
चाँद- तारों की बातें 
अब नहीं सुहाती .....

वह दृश्य अदृश्य नहीं हो रहा 
उसकी चीखें कानों में गूंजती हैं रहती  |
उसके सामने पति की लाश पड़ी थी,
वह बच्चों को सीने से लगाए
बिलख रही थी ....
पति आत्महत्या कर 
बेकारी, मायूसी, निराशा से छूट गया था |

पीछे रह गई थी वह,
आर्थिक मंदी की मार सहने,
घर और कारों की नीलामी देखने |
अकेले ही बच्चों को पालने और 
पति की मौत की शर्मिंदगी झेलने |

बार -बार चिल्लाई थी वह,
कायर नहीं थे तुम 
फिर क्या हल निकाला,
तंगी और मंदी का तुमने |

आँखों में सपनों का सागर समेटे,
अमेरिका वे आए थे |
सपनों ने ही लूट लिया उन्हें 
छोड़ मंझधार में चले गए |

सुख -दुःख में साथ निभाने की 
सात फेरे ले कसमें खाई थीं |
सुख में साथ रहा और 
दुःख में नैया छोड़ गया वह |
कई भत्ते देकर
अमरीकी सरकार 
पार उतार देगी नौका उनकी |

पर पीड़ा, 
वेदना 
तन्हाई 
दर्द
उसे अकेले ही सहना है |

सच कहूँ,
प्रकृति की बातें 
फूलों की खुशबू अब नहीं भरमाती......