Friday, September 18, 2009

कुछ अपनी कुछ पराई--२

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पहचान की तलाश की बात पिछली पोस्ट में हुई थी. आज भी 

उस पर कुछ लिखना  चाहती हूँ. भारत में हम माँ-बाप, खानदान, 

दादा, परदादा और एक भरे पूरे परिवार से जाने जाते हैं. एक 

पहचान ले कर पैदा होते हैं. वहाँ  पहचान की तलाश की तलब 

नहीं होती. पहचान का 'सुरक्षा कवच' जन्म के समय ही पहना 

दिया जाता है, फलाँ का बेटा, उस खानदान की बेटी. विदेश में 

आकर हमें अपनी पहचान तलाशनी पड़ती है, एक तरह से 

बनानी पड़ती है. यहाँ हमें कोई हमारे खानदान, परिवार से 

नहीं जानता. हम क्या है? हमने क्या किया है ? हम क्या 

कर सकते हैं ? इसी को प्रमाणित करने में उम्र बीत जाती 

है. ठीक उसी तरह जैसे औरत की उम्र बीत जाती है, स्वयं 

को सिद्ध करने में कि वह इन्सान है. कई बार औरत 

स्वयं भी नहीं जान पाती कि वह भी एक इन्सान है, बस 

माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी और प्रेमिका के दायित्व 

निभाती हुई, इस दुनिया से कूच कर जाती है. मैं  

साऊथ एशियंस महिलाओं का स्पोर्ट ग्रुप चलाती 

हूँ. उससे जो तथ्य जान पाई हूँ कि पूरी दुनिया के 

स्त्री-पुरुष 'तकरीबन' एक सी सोच रखते हैं. औरत 

भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी प्रताड़ित होती है. 

उम्र भर वह पहचान को तलाशती है. मेरी एक 

तलाक़शुदा ताई जी और जोडी व्हाइट(तलाकशुदा 

अमरीकी महिला), जिसका केस हमारे स्पोर्ट ग्रुप 

में आया था, दोनों महिलाओं की सोच में मैंने इतनी 

समानता पाई थी कि उस सोच से प्रेरित हो 

कर एक कविता ने जन्म ले लिया था......
 

अनकही बात

छोड़ दिया
 

तेरा आँगन
 

न लाँघी कोई और दहलीज़
 

न पार किया कोई और दर.
 


भटकी हूँ
 

दश्त में
 

तेरी यादों की रेतीली कतारों में .
 

लौटूंगी नहीं अब तेरे साये में.
 


तूने प्यार किया मुझे
 

स्वीकार किया मुझे
 

पर मार डाला मेरी ''मैं'' को.
 

नकार दिया मेरे अहम् को.
 


अब दाग लगें
 

दामन  पर जितने
 

मैं सह लूँगी
 

दुनिया जो कहे
 

मैं झेलूँगी
 

तू जो कहे मैं चुप रहूँगी.
 


मैं अपनी लाश को
 

कन्धों पर उठाए
 

वीरानों में
 

दो कंधे और ढूँढूंगी
 

जो उसे मरघट तक पहुँचा दे---
 


जिसे दुनिया ने
 

सिर्फ औरत
 

और तूने
 

महज़ बच्चों की माँ समझा......
 


और तेरे समाज ने नारी को
 

वंश बढ़ाने का
 

माध्यम ही समझा,
 

पर उसे इन्सान किसी ने नहीं समझा.

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कल ही लिखी थी यह रचना
 

अलग रंग---अलग मूड--- 





जाने दो
 

बस दामन  को छू कर
 

गुज़र जाने दो ,
 

इन बहारों को फिर से
 

बिखर जाने दो.

 

तपिश कैसे लगेगी
 

दिल को मेरे,
 

उलझे से बाल एक बार
 

बिखर जाने दो.

 

मदमस्त पलकों को
 

यूँ न रखो खुला,
 

स्वप्न भटकते हैं
 

इन को घर जाने दो.

 

यूँ  छुपाओ न चेहरा
 

खुली रात में,
 

चाँद शर्माता है कुछ और
 

निखर जाने दो.

 

भीतर उठने दो न बीती
 

बातों का धुआं,
 

ये खूबसूरत पल 
 

यूँ ही गुज़र जाने दो.

Tuesday, September 1, 2009

कुछ अपनी कुछ पराई

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बार्नस एंड नोबल पुस्तकों के स्टोर में स्थानीय अमरीकी कवियों का

एक ग्रुप इकठ्ठा होता है, इस का पता जब मुझे चला तो मैं भी वहाँ जाने

लगी.
कुछ दिन तो औपचारिकता रही, फिर शीघ्र ही उन्होंने मुझे स्वीकार

लिया. 
हर माह के तीसरे रविवार हम मिलते थे. अपनी -अपनी कविताएँ

सुनाते और फिर
उन पर चर्चा होती. मज़ेदार बात यह थी कि कई बार विषय

भी चुना जाता और अमरीकी कवि
अपने परिवेश, संस्कृति की बात कहते और
 
मुझ से उम्मीद करते कि मैं इसी परिवेश की ही बात करूँ.
मैं परिवेश तो तक़रीबन

ले आती क्योंकि यहाँ रहती हूँ पर अपनी सभ्यता, संस्कृति का दमन न  छोड़ पाती.


सोच में अमरीका के साथ भारत भी उभर आता. कई बार तो वे कविता सुन उछल

पड़ते तो कई बार बहस छिड़ जाती.
उदाहरणार्थ एक बार विषय चुना गया था -

किशोरावस्था की वयः संधि. तकरीबन हरेक ने थोड़े बहुत शारीरिक परिवर्तनों का


ज़िक्र कर बोय फ्रैंड की सोच तक ला कर बात समाप्त कर दी. मैं सब संवेदनायों के साथ

परिवर्तनों को देना चाहती थी. और समय का चित्र बांधना चाहती थी, जिससे पता चले

कि कैसा महसूस होता है? मैंने कविता लिखी--  ''तलाश पहचान की". जो बहुत पसंद की

गई.
शर्त होती थी कि भाषा अलंकृत  और पेचदार नहीं होनी चाहिए, सीधे, सटीक हम

विषय को छूएँ--यह चुनौती होती थी. कितनी सफल हूँ आप के समक्ष
वह रचना प्रस्तुत है ---

तलाश पहचान की


किशोरावस्था की वयः संधि पर

कदम रखा ही था.


शारीरिक परिवर्तनों का एहसास


अभी होने ही लगा था.


पंख  लगा कर उड़ने का


मन करने लगा था.


बादलों की गर्जन


बिजली की चमक का


डर हटने लगा था.



अंगों को


बरसात में भीगने का


सुख मिलने लगा था.


दुनिया की हर शै


सुन्दर लगने लगी थी.


भीतर का उफान बहार आ


अंगडाई  लेने लगा था.


हवा पर चलने का


आभास होने लगा था.




आईने के सामने खड़े हो


खुद को निहारने का मन


करने लगा था.


बन संवर कर इठलाने को


मन मचलने लगा था.


कोई मेरी और खिंचा चला आए


तमन्ना होने लगी थी.


मन बेकाबू हो


विवेक का साथ छोड़ने लगा था.


सोच के इस बदलाव का


अनुभव होने लगा था.



माँ की चोर नज़रे पीछा


करने लगी थीं.


बिन बात के खिलखिला कर


हँसी आने लगी थी.


सहेलियों संग उन्मुक्त विचरना


लुभाने लगा था.


ऐसे में बाप के अनुशासन


की डोर कसने लगी थी.



चहुँ और एक शोर सा


होने लगा था.


लड़की सुन्दर और जवान


दिखने लगी थी.


माँ धीरे -धीरे बुदबुदा कर


समझाने लगी थी.


गलत सही की पहचान


करवाने लगी थी.


 

उसकी ज्ञान वर्धक बातें

भाषण लगने लगी थीं.


सारी दुनिया ना समझ


लगने लगी थी.


जीवन के नए रास्ते बनाने 


की चाह होने लगी थी.


स्वयं को पहचानने की


तलाश होने लगी थी.



 

इस विचार ने मेरी पुस्तक ''तलाश पहचान की'' को जन्म दिया.

ग्रुप धीरे- धीरे छोटा हो गया. कई लोग राले से नौकरी की वजह से


स्थानांतरित हो गए थे.


जब भी मौका मिलता है, बचे हुए हम कवि लोग इकट्ठे होते हैं.


अपनी -अपनी पहचान की तलाश करते हैं......