Thursday, August 27, 2009

कुछ कहना है....

5 comments
मित्रो,
 
आप लोगों के सुझाव मान कर शब्दसुधा का रंग रूप बदला है, कैसा लगा ?
 
आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा. एक मित्र ने एतराज़ किया है
 
कि अपने ही ब्लाग पर मैंने अपने नाम के साथ डॉ. लगाया है. जो सही
 
नहीं है. डॉ. दूसरे आप के नाम के साथ लगाते हैं स्वयं नहीं.
 
दोस्तों ! यह अलबेला भाई ने लगाया है. मैं उन्हें कई बार डॉ. हटाने को
 
कह चुकीं हूँ. हर बार अपने अलबेले अंदाज़ में वह टाल जाते हैं--
 
''दीदी नाम के साथ डॉ. लगाने में आप को कितना  समय लगा. कड़ी
 
मेहनत की. इतनी जल्दी थोड़े ही हट सकता है. उतना नहीं तो थोड़ा
 
समय तो लगेगा ही.'' 

अब भाई के इस जवाब पर क्या करूँ ?
 
फिर मिलते हैं ...
 
सुधा ओम ढींगरा

Thursday, August 20, 2009

''हिंदी चेतना'' का नया अंक '' कामिल- बुल्के विशेषांक ''.

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मित्रो,

उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' का नया अंक

प्रकाशित हो गया है.
कामिल- बुल्के जन्मशती के उपलक्ष्य में

हिन्दी चेतना देश- विदेश में फ़ैले अपने पाठकों के लिए ले कर आई

है--जुलाई २००९ अंक '' कामिल- बुल्के विशेषांक ''.

इसे आप पढ़ सकतें हैं--


http://hindi-chetna.blogspot.com/

अथवा
http://www.vibhom.com/ publication.html
या

http://www.vibhom.com/index1.html

के online हिंदी चेतना के बटन को दबा कर खोल सकते हैं.

अपनी प्रतिक्रिया से हमें जरूर अवगत कराएँ।


सादर,

सुधा ओम ढींगरा



Tuesday, August 18, 2009

रात भर

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रात भर

यादों को

सीने में

उतारती रही,

चाँद- तारों

को भी

चुप-चाप

निहारती रही.


शांत

वातावरण

में न

हलचल हो कहीं,

तेरा नाम

धीरे से

फुसफुसा कर

पुकारती रही.


तेरी नजरें

जब भी

मिलीं

मेरी नज़रों से,

उन क्षणों को

समेट

पलकों का सहारा

देती रही.


उदास

वीरान

उजड़े

नीड़ को,

अश्रुओं

कुछ आहों

चंद सिसकियों से

संवारती रही.


जीवन की

राहों में

छूट गए

बिछुड़ गए जो ,

मुड़-मुड़ के

उन्हें देखती

लौट आने
को

इंतज़ारती
रही.

सुधा ओम ढींगरा

Monday, August 17, 2009

लघु कथा : दौड़

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मैं अपने बेटे को निहार रही थी. वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के

अँगूठे को मुँह में डालना चाह रहा था. और मैं उसके नन्हे-नन्हे हाथों

से पाँव का अँगूठा छुड़वाने की कोशिश कर रही थी. उस कोशिश में

वह मेरी उँगली को भी मुँह में डालना चाहता था. चेहरे पर चंचलता,

आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे

गड्डे--अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था.

मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल-लीलाओं का आन्नद ले

रही थी. वह मेरे पास आ कर बैठ गई. मुझे पता ही नहीं चला.

मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी, शायद यशोदा मैय्या ने बाल

गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने

इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा. उसने मुझे पुकारा--

मैंने सुना नहीं. उसने मुझे कंधे पर थपथपाया. मैंने चौंक कर

देखा-- हँसती, मुस्कराती, सुखी, शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे

सामने खड़ी थी--बोली-- ''पहचाना नहीं? मैं भारत की

ज़िन्दगी हूँ.'' मैं सोच में पड़ गई--भारत में भ्रष्टाचार है,

बेईमानी है, धोखा है, फरेब है. फिर भी ज़िन्दगी खुश है .

मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली-- ''पराये देश,

पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़, दौड़ते

हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई.'' मैं सोचने लगी

--भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है,

ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है? जिंदगी ने मुझे पकड़ लिया--

मुस्कराते हुए बोली -- ''भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती,

अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह , नाते-रिश्तों में पलती है।

तुम लोग औपचारिक धरती पर बस दौड़ते हो. कभी स्थापित होने

की दौड़ , कभी नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और

परायों से आगे बढ़ने की दौड़---'' मैंने उसकी बात अनसुनी करनी

चाही, पर वह बोलती गई-- ''कभी सोचा आने वाली पीढ़ी को तुम

क्या ज़िन्दगी दोगी?'' इस बात पर मैंने अपना बेटा उठाया, सीने से

लगाया और दौड़ पड़ी--- उसका कहकहा गूँजा--''सच कड़वा लगा,

दौड़ ले, जितना दौड़ना है-- कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी

तो सोचेगी- क्या ज़िन्दगी दोगी --तुम अपने बच्चे को--अभी भी

समय है लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में.....'' मैं और तेज़

दौड़ने लगी उसकी आवाज़ की पँहुच से परे--वह चिल्लाई--''कहीं

देर न हो जाए, लौट चल----'' मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी

आवाज़ मेरे तक नहीं पहुँचती-- पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रहीं हूँ......

सुधा ओम ढींगरा

Tuesday, August 4, 2009

रक्षा बंधन की सब भाई -बहनों को शुभ कामनाएँ--

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रक्षा बंधन ख़ुशी के साथ -साथ मुझे उदासी भी दे जाता है.

आज के दिन मुझे अपने बड़े भैया बहुत याद आते हैं.

तीन साल पहले वे मुझे छोड़ कर चले गए.

मैं उनसे साढ़े दस साल छोटी हूँ. हम दो ही बहन- भाई थे.

तीन साल पहले तक मैं मुन्ना थी.

उनके जाने के बाद मैं अचानक सुधा बन गई.

ऐसा लगा कि बड़ी हो गई हूँ . कोई मुन्ना कहने वाला नहीं रहा.

आज मैं जो भी हूँ, उन्हीं की बदौलत हूँ.

उन्होंने मेरी खातिर मम्मी-पापा से बहुत डांट खाई.

मैं चंचल और चुलबुली थी, भैया धीर, गम्भीर और शांत थे.

मम्मी -पापा डाक्टर थे और वे मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे.

और मैं पता नहीं सूरज ,चाँद, तारों में क्या ढूँढती रहती थी?

हवा में उड़ती रहती थी.

भैया भी डाक्टर थे और वे समझ गए थे कि

मैं कभी भी डाक्टर नहीं बन पाऊँगी.

और उम्र भर माँ -पा की झिड़कियाँ खाती रहूँगी.

उन्होंने मुझे वही बनाया जो मैं बनना चाहती थी.

घने वृक्ष सामान उन्होंने मुझे धूप ,बारिश, ओलों , दुःख में बचाए रखा.

ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते थे और मेरी किशोरावस्था में ही

उन्होंने कह दिया था कि मुन्ना तुम आज़ाद पंछी हो खुले

आकाश में विचरण करना , ग़ज़ल तेरे बस की नहीं.

उनकी आकस्मिक मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा आघात दिया.

उनके बाद तो मेरे परिवार के सात जन चले गए,

मायके में कोई बचा ही नहीं.

उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता पर खुश हो लेती हूँ

कि मेरे और भाई भी हैं।

पाती

बादलों के उस पार

है मेरे भाई का घर

ऐ मेरी सखी, पुरवाई

ले जा मेरा संदेसा उसके दर

कहना खड़ी है तेरी बहना

धरती के उस छोर

हाथ में लिए राखी

थाली में चन्दन, रौली, मौली

बर्फी, लड्डू

बाँध कई कलाइयों पर राखी

तेरी कलाई याद है आती

ऐ मेरी सखी, पुरवाई

ले जा मेरी पाती

कहना मेरे भाई को

खुश रहे वह अपने दर

मैं खुश हूँ अपने घर

वादा करती हूँ

नहीं रोऊँगी

तुम भी मत रोना

आज के दिन!