मर्यादा/ लघु कथा
'' दादी, पापा रोज़ शराब पी कर, माँ को पीटते हैं. आप राम -राम
करती रहती हैं, उन्हें रोकती क्यों नहीं?''पोती ने नाराज़गी से पूछा.
'' अरे तेरा बाप किसी की सुनता है?, जो वह मेरे कहने पर बहू पर
हाथ उठाने से रुक जायेगा और फिर पति -पत्नी का मामला है,
मैं बीच में कैसे बोल सकती हूँ? ''
''आप जब अपने कमरे में माँ की शिकायतें लगाती हैं,
तब तो वे आपकी सारी बातें सुनते हैं, और फिर पति -पत्नी
की बात कहाँ रह गई ? रोज़ तमाशा होता है ''
'' वह काम से सीधा मेरे कमरे में आता है, तेरी माँ को
जलन होती है, तुझे भी अपनी माँ की तरह, उसका,
मेरे कमरे में आना अच्छा नहीं लगता.''
''दादी आप माँ हो , आप का हक़ सबसे पहले है,
पर आप के कमरे से निकल कर, वे शराब पीते हैं
और माँ से लड़ते -झगड़ते हैं, उन्हें पीटते हैं,
यह गलत है. पापा को बोल देना कि अगर आज
माँ पर हाथ उठाया, तो हम तीनों बहनें, माँ के साथ,
खड़ी हो जाएँगी और ज़रुरत पड़ी तो पुलिस थाने भी
चली जाएँगी, पर माँ को पिटने नहीं देंगी.''
'' हे राम, यह सब दिखाने से पहले मुझे उठा क्यों
नहीं लेता, मेरा बेटा बेचारा अकेला..काश! मेरा
पोता होता, यह दिन तो ना देखना पड़ता.....
बाप की मर्यादा रखता.''
'' किस मर्यादा की बात करती हैं ? गर्भवती पत्नी को
जंगलों में छोड़ कर मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने
वाले की ....मर्यादा सिर्फ आदमी की
ही नहीं, औरत की भी होती है...''
Tuesday, December 29, 2009
Friday, November 6, 2009
''हिंदी चेतना'' का नया अंक
सम्माननीय एवं मित्रों,
उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना''
अपना नया अंक अक्तूबर २००९ में अपने पाठकों के लिए
ले कर आई है--
अमेरिका, कैनेडा , यू.के. से कविताएँ, लेख, साहित्य समाचार..
बाईं तरफ-- हिन्दी चेतना अथवा विभौम के बटन दबा कर
इन्हें आप पढ़ सकतें हैं--
अपनी प्रतिक्रिया से हमें ज़रूर अवगत कराएँ।
सादर सप्रेम,
सुधा ओम ढींगरा
उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना''
अपना नया अंक अक्तूबर २००९ में अपने पाठकों के लिए
ले कर आई है--
- कहानी-- 'संस्कार शेष'--कृष्ण बिहारी (अबूदाबी )
- संस्मरण --एक परंम्परा का अंत --रूप सिंह चंदेल
- हिन्दी ब्लाग में इन दिनों --आत्माराम शर्मा
- ग़ज़ल -चाँद शुक्ला 'हदियाबादी' (डेनमार्क )
- लघु कथाएँ -बलराम अग्रवाल
अमेरिका, कैनेडा , यू.के. से कविताएँ, लेख, साहित्य समाचार..
बाईं तरफ-- हिन्दी चेतना अथवा विभौम के बटन दबा कर
इन्हें आप पढ़ सकतें हैं--
अपनी प्रतिक्रिया से हमें ज़रूर अवगत कराएँ।
सादर सप्रेम,
सुधा ओम ढींगरा
Friday, October 30, 2009
नींद चली आती है.....
बाँट में,
अपने हिस्से का सब छोड़,
कोने में पड़ी
सूत से बुनी वह मंजी
अपने साथ ले आई,
जो पुरानी, फालतू समझ
फैंकने के इरादे से
वहाँ रखी थी.
बेरंग चारपाई को उठाते
बेवकूफ लगी थी मैं,
आँगन में पड़ी
बचपन और जवानी का
पालना थी वह.
नेत्रहीन मौसी ने
कितने प्यार से
सूत काता, अटेरा और
चौखटे को बुना था,
टोह- टोह कर रंगदार सूत
नमूनों में डाला था.
चौखटे को कस कर जब
चारपाई बनी,
तो हम बच्चे सब से
पहले उस पर कूदे थे.
उसी चारपाई पर मौसी संग
सट कर सोते थे,
सोने से पहले कहानियाँ सुनते
और तारों भरे आकाश में,
मौसी के इशारे पर
सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.
और फिर अन्दर धंसी
मौसी की बंद आँखों में देखते--
मौसी को दिखता है----
तभी तो तारों की पहचान है.
हमारी मासूमियत पर वह हँस देती
और करवट बदल कर सो जाती,
चन्दन की खुश्बू वाले उसके बदन
पर टाँगें रखते ही,
हम नींद की आगोश में लुढ़क जाते.
चारपाई के फीके पड़े रंग
समय के धोबी पट्कों से
मौसी के चेहरे पर आईं
झुरियाँ सी लगते हैं.
जीवन की आपाधापी से
भाग जब भी उस
चारपाई पर लेटती हूँ,
तो मौसी का
बदन बन वह
मनुहार और दुलार देती है .
हाँ चन्दन के साथ अब
बारिश, धूप में पड़े रहने
और त्यागने के दर्द की गंध
भी आती है,
पर उस बदन पर टांगे
फैलाते ही नींद चली आती है.....
अपने हिस्से का सब छोड़,
कोने में पड़ी
सूत से बुनी वह मंजी
अपने साथ ले आई,
जो पुरानी, फालतू समझ
फैंकने के इरादे से
वहाँ रखी थी.
बेरंग चारपाई को उठाते
बेवकूफ लगी थी मैं,
आँगन में पड़ी
बचपन और जवानी का
पालना थी वह.
नेत्रहीन मौसी ने
कितने प्यार से
सूत काता, अटेरा और
चौखटे को बुना था,
टोह- टोह कर रंगदार सूत
नमूनों में डाला था.
चौखटे को कस कर जब
चारपाई बनी,
तो हम बच्चे सब से
पहले उस पर कूदे थे.
उसी चारपाई पर मौसी संग
सट कर सोते थे,
सोने से पहले कहानियाँ सुनते
और तारों भरे आकाश में,
मौसी के इशारे पर
सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.
और फिर अन्दर धंसी
मौसी की बंद आँखों में देखते--
मौसी को दिखता है----
तभी तो तारों की पहचान है.
हमारी मासूमियत पर वह हँस देती
और करवट बदल कर सो जाती,
चन्दन की खुश्बू वाले उसके बदन
पर टाँगें रखते ही,
हम नींद की आगोश में लुढ़क जाते.
चारपाई के फीके पड़े रंग
समय के धोबी पट्कों से
मौसी के चेहरे पर आईं
झुरियाँ सी लगते हैं.
जीवन की आपाधापी से
भाग जब भी उस
चारपाई पर लेटती हूँ,
तो मौसी का
बदन बन वह
मनुहार और दुलार देती है .
हाँ चन्दन के साथ अब
बारिश, धूप में पड़े रहने
और त्यागने के दर्द की गंध
भी आती है,
पर उस बदन पर टांगे
फैलाते ही नींद चली आती है.....
Thursday, October 22, 2009
Friday, October 16, 2009
मैं दीप बाँटती हूँ.....
मैं दीप बाँटती हूँ.....
इनमें तेल है मुहब्बत का
बाती है प्यार की
और लौ है प्रेम की
रौशन करती है जो
हर अंधियारे
हृदय औ' मस्तिष्क को.
मैं दीप लेती भी हूँ...
पुराने टूटे- फूटे
नफरत,
इर्ष्या,
द्वेष के दीप,
जिनमें तेल है-
कलह- क्लेश का
बाती है वैर -विरोध की
लौ करती है जिनकी जग-अँधियारा.
हो सके तो दे दो इन दीपों को
ले लो नए दीप
प्रेम, स्नेह और अनुराग के दीप
जी हाँ मैं दीप बाँटती हूँ ............
Friday, October 2, 2009
नेक दिल
राले शहर, नार्थ कैरोलाईना में स्थापित गाँधी जी की प्रतिमा
वह
नेक दिल
इन्सान था.
लोगों के लिए
भगवान था.
नेक दिल
इन्सान था.
लोगों के लिए
भगवान था.
जिसने अपना
सब कुछ लुटाया,
ख़ुद को मिटाया कि
देश आज़ाद हो सके.
सब कुछ लुटाया,
ख़ुद को मिटाया कि
देश आज़ाद हो सके.
भावी पीढ़ी
सुख की साँस ले सके.
कुर्बानी उसकी रंग लाई......
देश आज़ाद हुआ,
वह कल की बात हुआ.
सुख की साँस ले सके.
कुर्बानी उसकी रंग लाई......
देश आज़ाद हुआ,
वह कल की बात हुआ.
समय के साथ
जब उसका ध्यान आया.
लोगों का मन
बहुत झुंझलाया .
जब उसका ध्यान आया.
लोगों का मन
बहुत झुंझलाया .
तब
झट से
किसी कंकर
पत्थर की सड़क पर
नाम लिखवाया.
चौराहे पर
बुत लगवाया.
झट से
किसी कंकर
पत्थर की सड़क पर
नाम लिखवाया.
चौराहे पर
बुत लगवाया.
विचारों,
आदर्शों को
सीधा श्मशान पहुँचाया
और
गहरे दफनाया.
सुधा ओम ढींगरा
आदर्शों को
सीधा श्मशान पहुँचाया
और
गहरे दफनाया.
सुधा ओम ढींगरा
Friday, September 18, 2009
कुछ अपनी कुछ पराई--२
पहचान की तलाश की बात पिछली पोस्ट में हुई थी. आज भी
उस पर कुछ लिखना चाहती हूँ. भारत में हम माँ-बाप, खानदान,
दादा, परदादा और एक भरे पूरे परिवार से जाने जाते हैं. एक
पहचान ले कर पैदा होते हैं. वहाँ पहचान की तलाश की तलब
नहीं होती. पहचान का 'सुरक्षा कवच' जन्म के समय ही पहना
दिया जाता है, फलाँ का बेटा, उस खानदान की बेटी. विदेश में
आकर हमें अपनी पहचान तलाशनी पड़ती है, एक तरह से
बनानी पड़ती है. यहाँ हमें कोई हमारे खानदान, परिवार से
नहीं जानता. हम क्या है? हमने क्या किया है ? हम क्या
कर सकते हैं ? इसी को प्रमाणित करने में उम्र बीत जाती
है. ठीक उसी तरह जैसे औरत की उम्र बीत जाती है, स्वयं
को सिद्ध करने में कि वह इन्सान है. कई बार औरत
स्वयं भी नहीं जान पाती कि वह भी एक इन्सान है, बस
माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी और प्रेमिका के दायित्व
निभाती हुई, इस दुनिया से कूच कर जाती है. मैं
साऊथ एशियंस महिलाओं का स्पोर्ट ग्रुप चलाती
हूँ. उससे जो तथ्य जान पाई हूँ कि पूरी दुनिया के
स्त्री-पुरुष 'तकरीबन' एक सी सोच रखते हैं. औरत
भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी प्रताड़ित होती है.
उम्र भर वह पहचान को तलाशती है. मेरी एक
तलाक़शुदा ताई जी और जोडी व्हाइट(तलाकशुदा
अमरीकी महिला), जिसका केस हमारे स्पोर्ट ग्रुप
में आया था, दोनों महिलाओं की सोच में मैंने इतनी
समानता पाई थी कि उस सोच से प्रेरित हो
कर एक कविता ने जन्म ले लिया था......
अनकही बात
छोड़ दिया
उस पर कुछ लिखना चाहती हूँ. भारत में हम माँ-बाप, खानदान,
दादा, परदादा और एक भरे पूरे परिवार से जाने जाते हैं. एक
पहचान ले कर पैदा होते हैं. वहाँ पहचान की तलाश की तलब
नहीं होती. पहचान का 'सुरक्षा कवच' जन्म के समय ही पहना
दिया जाता है, फलाँ का बेटा, उस खानदान की बेटी. विदेश में
आकर हमें अपनी पहचान तलाशनी पड़ती है, एक तरह से
बनानी पड़ती है. यहाँ हमें कोई हमारे खानदान, परिवार से
नहीं जानता. हम क्या है? हमने क्या किया है ? हम क्या
कर सकते हैं ? इसी को प्रमाणित करने में उम्र बीत जाती
है. ठीक उसी तरह जैसे औरत की उम्र बीत जाती है, स्वयं
को सिद्ध करने में कि वह इन्सान है. कई बार औरत
स्वयं भी नहीं जान पाती कि वह भी एक इन्सान है, बस
माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी और प्रेमिका के दायित्व
निभाती हुई, इस दुनिया से कूच कर जाती है. मैं
साऊथ एशियंस महिलाओं का स्पोर्ट ग्रुप चलाती
हूँ. उससे जो तथ्य जान पाई हूँ कि पूरी दुनिया के
स्त्री-पुरुष 'तकरीबन' एक सी सोच रखते हैं. औरत
भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी प्रताड़ित होती है.
उम्र भर वह पहचान को तलाशती है. मेरी एक
तलाक़शुदा ताई जी और जोडी व्हाइट(तलाकशुदा
अमरीकी महिला), जिसका केस हमारे स्पोर्ट ग्रुप
में आया था, दोनों महिलाओं की सोच में मैंने इतनी
समानता पाई थी कि उस सोच से प्रेरित हो
कर एक कविता ने जन्म ले लिया था......
अनकही बात
छोड़ दिया
तेरा आँगन
न लाँघी कोई और दहलीज़
न पार किया कोई और दर.
भटकी हूँ
दश्त में
तेरी यादों की रेतीली कतारों में .
लौटूंगी नहीं अब तेरे साये में.
तूने प्यार किया मुझे
स्वीकार किया मुझे
पर मार डाला मेरी ''मैं'' को.
नकार दिया मेरे अहम् को.अब दाग लगें
दामन पर जितने
मैं सह लूँगी
दुनिया जो कहे
मैं झेलूँगी
तू जो कहे मैं चुप रहूँगी.मैं अपनी लाश को
कन्धों पर उठाए
वीरानों में
दो कंधे और ढूँढूंगी
जो उसे मरघट तक पहुँचा दे---
जिसे दुनिया ने
सिर्फ औरत
और तूने
महज़ बच्चों की माँ समझा......
और तेरे समाज ने नारी को
वंश बढ़ाने का
माध्यम ही समझा,
पर उसे इन्सान किसी ने नहीं समझा. ---------------------------------------------------
कल ही लिखी थी यह रचना
अलग रंग---अलग मूड---
जाने दो
बस दामन को छू कर
गुज़र जाने दो ,
इन बहारों को फिर से
बिखर जाने दो.तपिश कैसे लगेगी
दिल को मेरे,
उलझे से बाल एक बार
बिखर जाने दो.मदमस्त पलकों को
यूँ न रखो खुला,
स्वप्न भटकते हैं
इन को घर जाने दो.यूँ छुपाओ न चेहरा
खुली रात में,
चाँद शर्माता है कुछ और
निखर जाने दो.
भीतर उठने दो न बीती
बातों का धुआं,
ये खूबसूरत पल
यूँ ही गुज़र जाने दो.
Tuesday, September 1, 2009
कुछ अपनी कुछ पराई
बार्नस एंड नोबल पुस्तकों के स्टोर में स्थानीय अमरीकी कवियों का
एक ग्रुप इकठ्ठा होता है, इस का पता जब मुझे चला तो मैं भी वहाँ जाने
लगी. कुछ दिन तो औपचारिकता रही, फिर शीघ्र ही उन्होंने मुझे स्वीकार
लिया. हर माह के तीसरे रविवार हम मिलते थे. अपनी -अपनी कविताएँ
सुनाते और फिर उन पर चर्चा होती. मज़ेदार बात यह थी कि कई बार विषय
भी चुना जाता और अमरीकी कवि अपने परिवेश, संस्कृति की बात कहते और
मुझ से उम्मीद करते कि मैं इसी परिवेश की ही बात करूँ. मैं परिवेश तो तक़रीबन
ले आती क्योंकि यहाँ रहती हूँ पर अपनी सभ्यता, संस्कृति का दमन न छोड़ पाती.
सोच में अमरीका के साथ भारत भी उभर आता. कई बार तो वे कविता सुन उछल
पड़ते तो कई बार बहस छिड़ जाती. उदाहरणार्थ एक बार विषय चुना गया था -
किशोरावस्था की वयः संधि. तकरीबन हरेक ने थोड़े बहुत शारीरिक परिवर्तनों का
ज़िक्र कर बोय फ्रैंड की सोच तक ला कर बात समाप्त कर दी. मैं सब संवेदनायों के साथ
परिवर्तनों को देना चाहती थी. और समय का चित्र बांधना चाहती थी, जिससे पता चले
कि कैसा महसूस होता है? मैंने कविता लिखी-- ''तलाश पहचान की". जो बहुत पसंद की
गई. शर्त होती थी कि भाषा अलंकृत और पेचदार नहीं होनी चाहिए, सीधे, सटीक हम
विषय को छूएँ--यह चुनौती होती थी. कितनी सफल हूँ आप के समक्ष वह रचना प्रस्तुत है ---
तलाश पहचान की
किशोरावस्था की वयः संधि पर
कदम रखा ही था.
शारीरिक परिवर्तनों का एहसास
अभी होने ही लगा था.
पंख लगा कर उड़ने का
मन करने लगा था.
बादलों की गर्जन
बिजली की चमक का
डर हटने लगा था.
अंगों को
बरसात में भीगने का
सुख मिलने लगा था.
दुनिया की हर शै
सुन्दर लगने लगी थी.
भीतर का उफान बहार आ
अंगडाई लेने लगा था.
हवा पर चलने का
आभास होने लगा था.
आईने के सामने खड़े हो
खुद को निहारने का मन
करने लगा था.
बन संवर कर इठलाने को
मन मचलने लगा था.
कोई मेरी और खिंचा चला आए
तमन्ना होने लगी थी.
मन बेकाबू हो
विवेक का साथ छोड़ने लगा था.
सोच के इस बदलाव का
अनुभव होने लगा था.
माँ की चोर नज़रे पीछा
करने लगी थीं.
बिन बात के खिलखिला कर
हँसी आने लगी थी.
सहेलियों संग उन्मुक्त विचरना
लुभाने लगा था.
ऐसे में बाप के अनुशासन
की डोर कसने लगी थी.
चहुँ और एक शोर सा
होने लगा था.
लड़की सुन्दर और जवान
दिखने लगी थी.
माँ धीरे -धीरे बुदबुदा कर
समझाने लगी थी.
गलत सही की पहचान
करवाने लगी थी.
उसकी ज्ञान वर्धक बातें
भाषण लगने लगी थीं.
सारी दुनिया ना समझ
लगने लगी थी.
जीवन के नए रास्ते बनाने
की चाह होने लगी थी.
स्वयं को पहचानने की
तलाश होने लगी थी.
इस विचार ने मेरी पुस्तक ''तलाश पहचान की'' को जन्म दिया.
ग्रुप धीरे- धीरे छोटा हो गया. कई लोग राले से नौकरी की वजह से
स्थानांतरित हो गए थे.
जब भी मौका मिलता है, बचे हुए हम कवि लोग इकट्ठे होते हैं.
अपनी -अपनी पहचान की तलाश करते हैं......
एक ग्रुप इकठ्ठा होता है, इस का पता जब मुझे चला तो मैं भी वहाँ जाने
लगी. कुछ दिन तो औपचारिकता रही, फिर शीघ्र ही उन्होंने मुझे स्वीकार
लिया. हर माह के तीसरे रविवार हम मिलते थे. अपनी -अपनी कविताएँ
सुनाते और फिर उन पर चर्चा होती. मज़ेदार बात यह थी कि कई बार विषय
भी चुना जाता और अमरीकी कवि अपने परिवेश, संस्कृति की बात कहते और
मुझ से उम्मीद करते कि मैं इसी परिवेश की ही बात करूँ. मैं परिवेश तो तक़रीबन
ले आती क्योंकि यहाँ रहती हूँ पर अपनी सभ्यता, संस्कृति का दमन न छोड़ पाती.
सोच में अमरीका के साथ भारत भी उभर आता. कई बार तो वे कविता सुन उछल
पड़ते तो कई बार बहस छिड़ जाती. उदाहरणार्थ एक बार विषय चुना गया था -
किशोरावस्था की वयः संधि. तकरीबन हरेक ने थोड़े बहुत शारीरिक परिवर्तनों का
ज़िक्र कर बोय फ्रैंड की सोच तक ला कर बात समाप्त कर दी. मैं सब संवेदनायों के साथ
परिवर्तनों को देना चाहती थी. और समय का चित्र बांधना चाहती थी, जिससे पता चले
कि कैसा महसूस होता है? मैंने कविता लिखी-- ''तलाश पहचान की". जो बहुत पसंद की
गई. शर्त होती थी कि भाषा अलंकृत और पेचदार नहीं होनी चाहिए, सीधे, सटीक हम
विषय को छूएँ--यह चुनौती होती थी. कितनी सफल हूँ आप के समक्ष वह रचना प्रस्तुत है ---
तलाश पहचान की
किशोरावस्था की वयः संधि पर
कदम रखा ही था.
शारीरिक परिवर्तनों का एहसास
अभी होने ही लगा था.
पंख लगा कर उड़ने का
मन करने लगा था.
बादलों की गर्जन
बिजली की चमक का
डर हटने लगा था.
अंगों को
बरसात में भीगने का
सुख मिलने लगा था.
दुनिया की हर शै
सुन्दर लगने लगी थी.
भीतर का उफान बहार आ
अंगडाई लेने लगा था.
हवा पर चलने का
आभास होने लगा था.
आईने के सामने खड़े हो
खुद को निहारने का मन
करने लगा था.
बन संवर कर इठलाने को
मन मचलने लगा था.
कोई मेरी और खिंचा चला आए
तमन्ना होने लगी थी.
मन बेकाबू हो
विवेक का साथ छोड़ने लगा था.
सोच के इस बदलाव का
अनुभव होने लगा था.
माँ की चोर नज़रे पीछा
करने लगी थीं.
बिन बात के खिलखिला कर
हँसी आने लगी थी.
सहेलियों संग उन्मुक्त विचरना
लुभाने लगा था.
ऐसे में बाप के अनुशासन
की डोर कसने लगी थी.
चहुँ और एक शोर सा
होने लगा था.
लड़की सुन्दर और जवान
दिखने लगी थी.
माँ धीरे -धीरे बुदबुदा कर
समझाने लगी थी.
गलत सही की पहचान
करवाने लगी थी.
उसकी ज्ञान वर्धक बातें
भाषण लगने लगी थीं.
सारी दुनिया ना समझ
लगने लगी थी.
जीवन के नए रास्ते बनाने
की चाह होने लगी थी.
स्वयं को पहचानने की
तलाश होने लगी थी.
इस विचार ने मेरी पुस्तक ''तलाश पहचान की'' को जन्म दिया.
ग्रुप धीरे- धीरे छोटा हो गया. कई लोग राले से नौकरी की वजह से
स्थानांतरित हो गए थे.
जब भी मौका मिलता है, बचे हुए हम कवि लोग इकट्ठे होते हैं.
अपनी -अपनी पहचान की तलाश करते हैं......
Thursday, August 27, 2009
कुछ कहना है....
मित्रो,
आप लोगों के सुझाव मान कर शब्दसुधा का रंग रूप बदला है, कैसा लगा ?
आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा. एक मित्र ने एतराज़ किया है
कि अपने ही ब्लाग पर मैंने अपने नाम के साथ डॉ. लगाया है. जो सही
नहीं है. डॉ. दूसरे आप के नाम के साथ लगाते हैं स्वयं नहीं.
दोस्तों ! यह अलबेला भाई ने लगाया है. मैं उन्हें कई बार डॉ. हटाने को
कह चुकीं हूँ. हर बार अपने अलबेले अंदाज़ में वह टाल जाते हैं--
''दीदी नाम के साथ डॉ. लगाने में आप को कितना समय लगा. कड़ी
मेहनत की. इतनी जल्दी थोड़े ही हट सकता है. उतना नहीं तो थोड़ा
समय तो लगेगा ही.''
अब भाई के इस जवाब पर क्या करूँ ?
फिर मिलते हैं ...
सुधा ओम ढींगरा
Thursday, August 20, 2009
''हिंदी चेतना'' का नया अंक '' कामिल- बुल्के विशेषांक ''.
Posted by
डॉ. सुधा ओम ढींगरा
at
Thursday, August 20, 2009
Labels:
'' कामिल- बुल्के विशेषांक ''.
6
comments
मित्रो,
उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' का नया अंक
प्रकाशित हो गया है. कामिल- बुल्के जन्मशती के उपलक्ष्य में
हिन्दी चेतना देश- विदेश में फ़ैले अपने पाठकों के लिए ले कर आई
है--जुलाई २००९ अंक '' कामिल- बुल्के विशेषांक ''.
इसे आप पढ़ सकतें हैं--
http://hindi-chetna.blogspot.com/
अथवा
http://www.vibhom.com/ publication.html
या
http://www.vibhom.com/index1.html
के online हिंदी चेतना के बटन को दबा कर खोल सकते हैं.
अपनी प्रतिक्रिया से हमें जरूर अवगत कराएँ।
सादर,
सुधा ओम ढींगरा
उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' का नया अंक
प्रकाशित हो गया है. कामिल- बुल्के जन्मशती के उपलक्ष्य में
हिन्दी चेतना देश- विदेश में फ़ैले अपने पाठकों के लिए ले कर आई
है--जुलाई २००९ अंक '' कामिल- बुल्के विशेषांक ''.
इसे आप पढ़ सकतें हैं--
http://hindi-chetna.blogspot.com/
अथवा
http://www.vibhom.com/ publication.html
या
http://www.vibhom.com/index1.html
के online हिंदी चेतना के बटन को दबा कर खोल सकते हैं.
अपनी प्रतिक्रिया से हमें जरूर अवगत कराएँ।
सादर,
सुधा ओम ढींगरा
Tuesday, August 18, 2009
रात भर
रात भर
यादों को
सीने में
उतारती रही,
चाँद- तारों
को भी
चुप-चाप
निहारती रही.
शांत
वातावरण
में न
हलचल हो कहीं,
तेरा नाम
धीरे से
फुसफुसा कर
पुकारती रही.
तेरी नजरें
जब भी
मिलीं
मेरी नज़रों से,
उन क्षणों को
समेट
पलकों का सहारा
देती रही.
उदास
वीरान
उजड़े
नीड़ को,
अश्रुओं
कुछ आहों
चंद सिसकियों से
संवारती रही.
जीवन की
राहों में
छूट गए
बिछुड़ गए जो ,
मुड़-मुड़ के
उन्हें देखती
लौट आने को
इंतज़ारती रही.
सुधा ओम ढींगरा
Monday, August 17, 2009
लघु कथा : दौड़
मैं अपने बेटे को निहार रही थी. वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के
अँगूठे को मुँह में डालना चाह रहा था. और मैं उसके नन्हे-नन्हे हाथों
से पाँव का अँगूठा छुड़वाने की कोशिश कर रही थी. उस कोशिश में
वह मेरी उँगली को भी मुँह में डालना चाहता था. चेहरे पर चंचलता,
आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे
गड्डे--अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था.
मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल-लीलाओं का आन्नद ले
रही थी. वह मेरे पास आ कर बैठ गई. मुझे पता ही नहीं चला.
मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी, शायद यशोदा मैय्या ने बाल
गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने
इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा. उसने मुझे पुकारा--
मैंने सुना नहीं. उसने मुझे कंधे पर थपथपाया. मैंने चौंक कर
देखा-- हँसती, मुस्कराती, सुखी, शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे
सामने खड़ी थी--बोली-- ''पहचाना नहीं? मैं भारत की
ज़िन्दगी हूँ.'' मैं सोच में पड़ गई--भारत में भ्रष्टाचार है,
बेईमानी है, धोखा है, फरेब है. फिर भी ज़िन्दगी खुश है .
मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली-- ''पराये देश,
पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़, दौड़ते
हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई.'' मैं सोचने लगी
--भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है,
ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है? जिंदगी ने मुझे पकड़ लिया--
मुस्कराते हुए बोली -- ''भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती,
अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह , नाते-रिश्तों में पलती है।
तुम लोग औपचारिक धरती पर बस दौड़ते हो. कभी स्थापित होने
की दौड़ , कभी नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और
परायों से आगे बढ़ने की दौड़---'' मैंने उसकी बात अनसुनी करनी
चाही, पर वह बोलती गई-- ''कभी सोचा आने वाली पीढ़ी को तुम
क्या ज़िन्दगी दोगी?'' इस बात पर मैंने अपना बेटा उठाया, सीने से
लगाया और दौड़ पड़ी--- उसका कहकहा गूँजा--''सच कड़वा लगा,
दौड़ ले, जितना दौड़ना है-- कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी
तो सोचेगी- क्या ज़िन्दगी दोगी --तुम अपने बच्चे को--अभी भी
समय है लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में.....'' मैं और तेज़
दौड़ने लगी उसकी आवाज़ की पँहुच से परे--वह चिल्लाई--''कहीं
देर न हो जाए, लौट चल----'' मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी
आवाज़ मेरे तक नहीं पहुँचती-- पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रहीं हूँ......
सुधा ओम ढींगरा
अँगूठे को मुँह में डालना चाह रहा था. और मैं उसके नन्हे-नन्हे हाथों
से पाँव का अँगूठा छुड़वाने की कोशिश कर रही थी. उस कोशिश में
वह मेरी उँगली को भी मुँह में डालना चाहता था. चेहरे पर चंचलता,
आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे
गड्डे--अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था.
मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल-लीलाओं का आन्नद ले
रही थी. वह मेरे पास आ कर बैठ गई. मुझे पता ही नहीं चला.
मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी, शायद यशोदा मैय्या ने बाल
गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने
इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा. उसने मुझे पुकारा--
मैंने सुना नहीं. उसने मुझे कंधे पर थपथपाया. मैंने चौंक कर
देखा-- हँसती, मुस्कराती, सुखी, शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे
सामने खड़ी थी--बोली-- ''पहचाना नहीं? मैं भारत की
ज़िन्दगी हूँ.'' मैं सोच में पड़ गई--भारत में भ्रष्टाचार है,
बेईमानी है, धोखा है, फरेब है. फिर भी ज़िन्दगी खुश है .
मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली-- ''पराये देश,
पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़, दौड़ते
हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई.'' मैं सोचने लगी
--भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है,
ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है? जिंदगी ने मुझे पकड़ लिया--
मुस्कराते हुए बोली -- ''भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती,
अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह , नाते-रिश्तों में पलती है।
तुम लोग औपचारिक धरती पर बस दौड़ते हो. कभी स्थापित होने
की दौड़ , कभी नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और
परायों से आगे बढ़ने की दौड़---'' मैंने उसकी बात अनसुनी करनी
चाही, पर वह बोलती गई-- ''कभी सोचा आने वाली पीढ़ी को तुम
क्या ज़िन्दगी दोगी?'' इस बात पर मैंने अपना बेटा उठाया, सीने से
लगाया और दौड़ पड़ी--- उसका कहकहा गूँजा--''सच कड़वा लगा,
दौड़ ले, जितना दौड़ना है-- कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी
तो सोचेगी- क्या ज़िन्दगी दोगी --तुम अपने बच्चे को--अभी भी
समय है लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में.....'' मैं और तेज़
दौड़ने लगी उसकी आवाज़ की पँहुच से परे--वह चिल्लाई--''कहीं
देर न हो जाए, लौट चल----'' मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी
आवाज़ मेरे तक नहीं पहुँचती-- पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रहीं हूँ......
सुधा ओम ढींगरा
Tuesday, August 4, 2009
रक्षा बंधन की सब भाई -बहनों को शुभ कामनाएँ--
रक्षा बंधन ख़ुशी के साथ -साथ मुझे उदासी भी दे जाता है.
आज के दिन मुझे अपने बड़े भैया बहुत याद आते हैं.
तीन साल पहले वे मुझे छोड़ कर चले गए.
मैं उनसे साढ़े दस साल छोटी हूँ. हम दो ही बहन- भाई थे.
तीन साल पहले तक मैं मुन्ना थी.
उनके जाने के बाद मैं अचानक सुधा बन गई.
ऐसा लगा कि बड़ी हो गई हूँ . कोई मुन्ना कहने वाला नहीं रहा.
आज मैं जो भी हूँ, उन्हीं की बदौलत हूँ.
उन्होंने मेरी खातिर मम्मी-पापा से बहुत डांट खाई.
मैं चंचल और चुलबुली थी, भैया धीर, गम्भीर और शांत थे.
मम्मी -पापा डाक्टर थे और वे मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे.
और मैं पता नहीं सूरज ,चाँद, तारों में क्या ढूँढती रहती थी?
हवा में उड़ती रहती थी.
भैया भी डाक्टर थे और वे समझ गए थे कि
मैं कभी भी डाक्टर नहीं बन पाऊँगी.
और उम्र भर माँ -पा की झिड़कियाँ खाती रहूँगी.
उन्होंने मुझे वही बनाया जो मैं बनना चाहती थी.
घने वृक्ष सामान उन्होंने मुझे धूप ,बारिश, ओलों , दुःख में बचाए रखा.
ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते थे और मेरी किशोरावस्था में ही
उन्होंने कह दिया था कि मुन्ना तुम आज़ाद पंछी हो खुले
आकाश में विचरण करना , ग़ज़ल तेरे बस की नहीं.
उनकी आकस्मिक मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा आघात दिया.
उनके बाद तो मेरे परिवार के सात जन चले गए,
मायके में कोई बचा ही नहीं.
उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता पर खुश हो लेती हूँ
कि मेरे और भाई भी हैं।
पाती
बादलों के उस पार
है मेरे भाई का घर
ऐ मेरी सखी, पुरवाई
ले जा मेरा संदेसा उसके दर
कहना खड़ी है तेरी बहना
धरती के उस छोर
हाथ में लिए राखी
थाली में चन्दन, रौली, मौली
बर्फी, लड्डू
बाँध कई कलाइयों पर राखी
तेरी कलाई याद है आती
ऐ मेरी सखी, पुरवाई
ले जा मेरी पाती
कहना मेरे भाई को
खुश रहे वह अपने दर
मैं खुश हूँ अपने घर
वादा करती हूँ
नहीं रोऊँगी
तुम भी मत रोना
आज के दिन!
आज के दिन मुझे अपने बड़े भैया बहुत याद आते हैं.
तीन साल पहले वे मुझे छोड़ कर चले गए.
मैं उनसे साढ़े दस साल छोटी हूँ. हम दो ही बहन- भाई थे.
तीन साल पहले तक मैं मुन्ना थी.
उनके जाने के बाद मैं अचानक सुधा बन गई.
ऐसा लगा कि बड़ी हो गई हूँ . कोई मुन्ना कहने वाला नहीं रहा.
आज मैं जो भी हूँ, उन्हीं की बदौलत हूँ.
उन्होंने मेरी खातिर मम्मी-पापा से बहुत डांट खाई.
मैं चंचल और चुलबुली थी, भैया धीर, गम्भीर और शांत थे.
मम्मी -पापा डाक्टर थे और वे मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे.
और मैं पता नहीं सूरज ,चाँद, तारों में क्या ढूँढती रहती थी?
हवा में उड़ती रहती थी.
भैया भी डाक्टर थे और वे समझ गए थे कि
मैं कभी भी डाक्टर नहीं बन पाऊँगी.
और उम्र भर माँ -पा की झिड़कियाँ खाती रहूँगी.
उन्होंने मुझे वही बनाया जो मैं बनना चाहती थी.
घने वृक्ष सामान उन्होंने मुझे धूप ,बारिश, ओलों , दुःख में बचाए रखा.
ग़ज़ल बहुत अच्छी लिखते थे और मेरी किशोरावस्था में ही
उन्होंने कह दिया था कि मुन्ना तुम आज़ाद पंछी हो खुले
आकाश में विचरण करना , ग़ज़ल तेरे बस की नहीं.
उनकी आकस्मिक मृत्यु ने मुझे बहुत बड़ा आघात दिया.
उनके बाद तो मेरे परिवार के सात जन चले गए,
मायके में कोई बचा ही नहीं.
उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता पर खुश हो लेती हूँ
कि मेरे और भाई भी हैं।
पाती
बादलों के उस पार
है मेरे भाई का घर
ऐ मेरी सखी, पुरवाई
ले जा मेरा संदेसा उसके दर
कहना खड़ी है तेरी बहना
धरती के उस छोर
हाथ में लिए राखी
थाली में चन्दन, रौली, मौली
बर्फी, लड्डू
बाँध कई कलाइयों पर राखी
तेरी कलाई याद है आती
ऐ मेरी सखी, पुरवाई
ले जा मेरी पाती
कहना मेरे भाई को
खुश रहे वह अपने दर
मैं खुश हूँ अपने घर
वादा करती हूँ
नहीं रोऊँगी
तुम भी मत रोना
आज के दिन!
Friday, July 24, 2009
खोज
उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका ''हिंदी चेतना'' का विशेषांक
आज प्रैस में गया है और थोड़ी सी राहत मिली है. जिन दोस्तों को
मेरे ब्लाग का रंग पसंद नहीं आया, उनका सन्देश मैंने
अलबेला खत्री जी को पहुँचा दिया है।
उन्होंने ही यह ब्लाग बना कर मुझे सौंपा है।
देखती हूँ कि वह इसका क्या करते हैं?
मेरे ब्लाग पर आने
और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करने के लिए धन्यवाद!
खोज
गिरा नज़र से जो
फिर उसका कहाँ ठिकाना है;
बोझ गुनाहों का स्वयं ही उठाना है.
डार से बिछुड़ कर
पूछे कोई उड़ने वाले से;
कहाँ मज़िल उसकी, कहाँ उसे जाना है.
क्या जानें रहने वाले
सुख औ' मदहोशी के जनून में;
वीरान बस्तियों को कैसे सजाना है.
किस लिए फैला
वहशत और गरूर का धुआं;
खाली करना है मकान, जो बेगाना है.
तनातनी ने
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में;
दिल कई बनाए नफ़रत का कारखाना है.
खोजे सुधा
अब किस जगह उस को;
इंसानियत हुई क़त्ल जहाँ उसे बैठाना है.
सुधा ओम ढींगरा
आज प्रैस में गया है और थोड़ी सी राहत मिली है. जिन दोस्तों को
मेरे ब्लाग का रंग पसंद नहीं आया, उनका सन्देश मैंने
अलबेला खत्री जी को पहुँचा दिया है।
उन्होंने ही यह ब्लाग बना कर मुझे सौंपा है।
देखती हूँ कि वह इसका क्या करते हैं?
मेरे ब्लाग पर आने
और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करने के लिए धन्यवाद!
खोज
गिरा नज़र से जो
फिर उसका कहाँ ठिकाना है;
बोझ गुनाहों का स्वयं ही उठाना है.
डार से बिछुड़ कर
पूछे कोई उड़ने वाले से;
कहाँ मज़िल उसकी, कहाँ उसे जाना है.
क्या जानें रहने वाले
सुख औ' मदहोशी के जनून में;
वीरान बस्तियों को कैसे सजाना है.
किस लिए फैला
वहशत और गरूर का धुआं;
खाली करना है मकान, जो बेगाना है.
तनातनी ने
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में;
दिल कई बनाए नफ़रत का कारखाना है.
खोजे सुधा
अब किस जगह उस को;
इंसानियत हुई क़त्ल जहाँ उसे बैठाना है.
सुधा ओम ढींगरा
Monday, July 20, 2009
तुम्हें क्या याद आया--
कई बार यादें बहुत तंग करती है, अगर अपने साथ छोड़ चुके हों. तो कई बार मन छोटी सी बात पर भी भारी हो जाता है. ऐसे में कुछ लिखा गया-- पेश है--
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
हमें तो
टूटा सा दिल
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
बारिश में भीगते
शरीरों की भीड़ में
हमें तो
बचपन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया---
तुम
अकारण रो पड़े--
दोपहर देख
ढलती उम्र की
दहलीज़ पर
हमें तो
यौवन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
उदास समंदर किनारे
सूनी आँखों से
हमें तो
अधूरा सा
धरौंदा
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
धुँधली आँखों से
सुलघती लकड़ियाँ देख
हमें तो
कोई
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
सुधा ओम ढींगरा
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
हमें तो
टूटा सा दिल
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
बारिश में भीगते
शरीरों की भीड़ में
हमें तो
बचपन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया---
तुम
अकारण रो पड़े--
दोपहर देख
ढलती उम्र की
दहलीज़ पर
हमें तो
यौवन
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
उदास समंदर किनारे
सूनी आँखों से
हमें तो
अधूरा सा
धरौंदा
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
तुम
अकारण रो पड़े--
धुँधली आँखों से
सुलघती लकड़ियाँ देख
हमें तो
कोई
अपना याद आया,
तुम्हें क्या याद आया--
सुधा ओम ढींगरा
Sunday, July 19, 2009
शब्द सुधा की सादर प्रस्तुति .....२
मेरी पहली पोस्ट के बाद बहुत सी ईमेल आईं कि मैं अपने कुछ प्रियजनों को भूल गई हूँ. नहीं दोस्तों! प्रियजन प्रिय होते हैं, उन्हें कैसे भूला जा सकता है? वे मेरे ही नहीं जन -जन के प्रिय हैं, मेरे अनुज हैं और उनका स्नेह ही मेरी शक्ति है. छोटों की बारी हमेशा बाद में आती है. दोनों के बारे में दूसरी पोस्ट में ही लिखने का विचार था. दोनों बांके नौजवान हैं. अभिनव शुक्ल भाषा की मज़बूत पकड़ लिए, प्रतिभा सम्पन्न, सभ्य, सुसंस्कृत, तेजस्वी कवि है. अथर्व की बुआ बना उसने मेरे परिवार का विस्तार कर दिया है। दूसरे अनुज गजेन्द्र सोलंकी संस्कारी, ऊर्जावान, ओजस्वी कवि हैं, अभी कुंवारे हैं. भाभी ढूँढ रही हूँ. दोनों गबरू जवान हैं-हिन्दी साहित्य और मुझे इनसे बहुत आशाएं हैं. जानती हूँ दोनों की शुभकामनाएँ और स्नेह मेरे साथ है। गुरु पूर्णिमा पर मुझे एक और तेजस्वी, ओजस्वी, ऊर्जा से भरपूर, साहित्य साधक, शब्दों का जादूगर नौजवान अनुज पंकज सुबीर मिला. परिवार का और विस्तार हुआ. इनका स्नेह ही मेरी पूँजी है । आदरणीय डॉ, कमलकिशोर गोयनका, डॉ. नरेन्द्र कोहली और डॉ. प्रेम जन्मेजय के आशीर्वाद तो हमेशा मेरे साथ हैं. इनके मार्गदर्शन की तो पग-पग पर मुझे ज़रुरत रहती है।
अगली बार से कुछ अनुभव साँझे करुँगी।
तब तक के लिए......
सुधा ओम ढींगरा
अगली बार से कुछ अनुभव साँझे करुँगी।
तब तक के लिए......
सुधा ओम ढींगरा
Thursday, July 16, 2009
शब्द्सुधा की सादर प्रस्तुति...............
अनुज अलबेला खत्री जी ने यह ब्लाग बना कर मुझे सौंप दिया और कहा कि दीदी अब तक आप ने इतने अनुभव समेटे हैं उन्हें लिख डालिए इस में. अपनी व्यस्तता के चलते , कई दिन इस तरफ ध्यान नहीं दे पाई. पर आखिर में अनुज की बात माननी पड़ी.
मित्रो ! इसे शुरू करने से पहले मैं अपने अग्रज 'हिन्दी चेतना' के मुख्य संपादक श्री श्याम त्रिपाठी जी को नमन करती हूँ, जिनका आशीर्वाद मेरी शक्ति है. वे मुझे भाई कहतें हैं. ओम व्यास ओम जी भी तो मुझे भाई कहते थे. कभी बहन नहीं कहा... फ़ोन पर बात शुरू करते ही कहते थे--सुधा भाई, क्या हाल है? भाई मुझे पता है, आप मुझे देख रहे हैं और आप की शुभ कामनाएँ मेरे साथ हैं.
मैं अपनी घनिष्ट सहेलिओं, वरिष्ट कवयित्री डॉ।अंजना संधीर, प्रतिष्ठित कथाकार इला प्रसाद के स्नेह के बिना इसे शुरू नहीं कर सकती जो हर दुःख सुख में मेरे साथ खड़ी रहती हैं। वरिष्ठ कवयित्री, कथाकार डॉ. सुदर्शन प्रियदर्शनी, प्रतिष्ठित कवयित्री रेखा मैत्र, शशि पाधा , राधा गुप्ता का सहयोग मेरी उर्जा है.
ई-कविता की त्रिमूर्ति (अनूप भार्गव, घनश्याम गुप्ता, राकेश खंडेलवाल) ने हमेशा मुझे प्रोत्साहित किया है. उन्हें नमन किये बिना मैं आगे नहीं बढ़ सकती.
रेडियो सबरंग के संचालक, निर्देशक, संरक्षक अपने भाई चाँद शुक्ला जी को इस ब्लाग को शुरू करने से पहले प्रणाम करती हूँ . उनका आशीर्वाद मेरे लिए बहुत महत्त्व रखता है.
यू. के के बड़े भाई गुरुवर प्राण शर्मा और आदरणीय महावीर जी( जिन्होंने अपने ब्लाग में हमेशा मुझे स्थान दिया) को कलम पकड़ने से पहले चरणवन्दना.
यू .के के वरिष्ठ, प्रतिष्ठित, चर्चित , सम्माननीय कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जिनकी कहानियों ने मेरे जीवन को एक नया मोड़ दिया. उनकी आलोचना मेरी कहानियों को सुदृढ़ करने में सहायता करती है. जानती हूँ उनका आशीर्वाद मेरे साथ है.
प्रसिद्द, वरिष्ठ साहित्यकार, उपन्यासकार रूप सिंह चंदेल जी( जिन्होंने रचनासमय और वातायन -अपने ब्लाग्स में मुझे बहुत सम्मान दिया ) और सुभाष नीरव जी जो कवि , नामवर कथाकार एवं प्रतिष्ठित अनुवादक हैं और इनके कई ब्लाग्स हैं। साहित्य निधि को समृद्ध करने में इनका बहुत योगदान हैं. दोनों साहित्यकारों की शुभकामनायें लिए बिना कैसे कुछ लिखा जा सकता है?
मित्रो ! इसे शुरू करने से पहले मैं अपने अग्रज 'हिन्दी चेतना' के मुख्य संपादक श्री श्याम त्रिपाठी जी को नमन करती हूँ, जिनका आशीर्वाद मेरी शक्ति है. वे मुझे भाई कहतें हैं. ओम व्यास ओम जी भी तो मुझे भाई कहते थे. कभी बहन नहीं कहा... फ़ोन पर बात शुरू करते ही कहते थे--सुधा भाई, क्या हाल है? भाई मुझे पता है, आप मुझे देख रहे हैं और आप की शुभ कामनाएँ मेरे साथ हैं.
मैं अपनी घनिष्ट सहेलिओं, वरिष्ट कवयित्री डॉ।अंजना संधीर, प्रतिष्ठित कथाकार इला प्रसाद के स्नेह के बिना इसे शुरू नहीं कर सकती जो हर दुःख सुख में मेरे साथ खड़ी रहती हैं। वरिष्ठ कवयित्री, कथाकार डॉ. सुदर्शन प्रियदर्शनी, प्रतिष्ठित कवयित्री रेखा मैत्र, शशि पाधा , राधा गुप्ता का सहयोग मेरी उर्जा है.
ई-कविता की त्रिमूर्ति (अनूप भार्गव, घनश्याम गुप्ता, राकेश खंडेलवाल) ने हमेशा मुझे प्रोत्साहित किया है. उन्हें नमन किये बिना मैं आगे नहीं बढ़ सकती.
रेडियो सबरंग के संचालक, निर्देशक, संरक्षक अपने भाई चाँद शुक्ला जी को इस ब्लाग को शुरू करने से पहले प्रणाम करती हूँ . उनका आशीर्वाद मेरे लिए बहुत महत्त्व रखता है.
यू. के के बड़े भाई गुरुवर प्राण शर्मा और आदरणीय महावीर जी( जिन्होंने अपने ब्लाग में हमेशा मुझे स्थान दिया) को कलम पकड़ने से पहले चरणवन्दना.
यू .के के वरिष्ठ, प्रतिष्ठित, चर्चित , सम्माननीय कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जिनकी कहानियों ने मेरे जीवन को एक नया मोड़ दिया. उनकी आलोचना मेरी कहानियों को सुदृढ़ करने में सहायता करती है. जानती हूँ उनका आशीर्वाद मेरे साथ है.
प्रसिद्द, वरिष्ठ साहित्यकार, उपन्यासकार रूप सिंह चंदेल जी( जिन्होंने रचनासमय और वातायन -अपने ब्लाग्स में मुझे बहुत सम्मान दिया ) और सुभाष नीरव जी जो कवि , नामवर कथाकार एवं प्रतिष्ठित अनुवादक हैं और इनके कई ब्लाग्स हैं। साहित्य निधि को समृद्ध करने में इनका बहुत योगदान हैं. दोनों साहित्यकारों की शुभकामनायें लिए बिना कैसे कुछ लिखा जा सकता है?
साहित्य साधक मित्र, अनुज आत्माराम ( गर्भनाल ई- पत्रिका) का सहयोग प्रेरणा बन मेरी रचनात्मकता और मौलिकता को नए पंख देता रहता है.
सभी ब्लागरस का साथ और शुभ कामनाएँ चाहती हूँ. साहित्य -शिल्पी के राजीव रंजन प्रसाद तो हमेशा मुझे साहित्य शिल्पी में छापते हैं. आभारी हूँ.
अनुभूति, अभिव्यक्ति की पूर्णिमा वर्मन जी और साहित्य कुञ्ज के सुमन घई को दाद देती हूँ, जो इतने वर्षों से हिंदी साहित्य को नायाब हीरे जवाहरात दे रहे हैं.
अंत में दैनिक पंजाब केसरी के मुख्य संपादक श्री विजय चोपड़ा जी के आशीर्वाद ( जिनके मार्ग दर्शन से मैं एक स्पष्ट और निडर पत्रकार और लेखिका बनीं) और अपने परिवार के सभी सदस्य जिन्हें ईश्वर ने अपने सान्निध्य में ले लिया है, के आशीर्वाद के साथ अपनी मेल समाप्त करती हूँ।
इसे पढ़ने और अपना समय देने के लिए आभारी हूँ.
सुधा ओम ढींगरा
सभी ब्लागरस का साथ और शुभ कामनाएँ चाहती हूँ. साहित्य -शिल्पी के राजीव रंजन प्रसाद तो हमेशा मुझे साहित्य शिल्पी में छापते हैं. आभारी हूँ.
अनुभूति, अभिव्यक्ति की पूर्णिमा वर्मन जी और साहित्य कुञ्ज के सुमन घई को दाद देती हूँ, जो इतने वर्षों से हिंदी साहित्य को नायाब हीरे जवाहरात दे रहे हैं.
अंत में दैनिक पंजाब केसरी के मुख्य संपादक श्री विजय चोपड़ा जी के आशीर्वाद ( जिनके मार्ग दर्शन से मैं एक स्पष्ट और निडर पत्रकार और लेखिका बनीं) और अपने परिवार के सभी सदस्य जिन्हें ईश्वर ने अपने सान्निध्य में ले लिया है, के आशीर्वाद के साथ अपनी मेल समाप्त करती हूँ।
इसे पढ़ने और अपना समय देने के लिए आभारी हूँ.
सुधा ओम ढींगरा
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